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५००) रु० के पाँच पुरस्कार
जो कोई विद्वान्, चाहे वे जैन हों या जनेतर, निम्न कि इस गाथामें 'अपदेससंतमज्म' नामका जो पद पाया विषयोंमेंसे किसी भी विषयपर अपना उत्तम लेख हिन्दी में जाता है और जिसे कुछ विद्वान् 'अपदेसमुत्तमजन' रूपसे लिख कर या अनुवादित कराकर भेजनेकी कृपा करेगे उनमेंसे भी उल्लेखित करते हैं, उसे 'जिनमासण' पदका विशेषण प्रत्येक विषयके सर्वश्रेष्ठ लेखकको १००) रु० बतौर बतलाया जाता है और उससे द्रव्यश्रुन तथा भावश्रुतका भी पुरस्कारके वीरसेवामन्दिर-ट्रस्टकी मार्फत सादर भेंट किये अर्थ लगाया जाता है, यह सब कहा तक सगत है अथवा जाएंगे। जो सज्जन पुरस्कार लेनकी स्थितिमे न हो अथवा पदका ठीक रूप क्या होना चाहिए? श्री अमृतचन्द्राउसे लेना नही चाहेंगे उनके प्रति दूसरे प्रकारसे सम्मान चार्य इस पदके अर्थ-विषयमे मौन है और जयसेनाचार्यने व्यक्त किया जायगा। उन्हे अपने इष्ट एव अधिकृत विषयपर जो अर्थ किया है वह पदमें प्रयुक्त हुए शब्दोंको देखते हुए लोकहितकी दृष्टिसे लेख लिखनेका प्रयत्न जरूर करना कुछ खटकता हुआ जान पड़ता है। एक सुझाव यह भी है कि चाहिए । प्रत्येक विषयका लेख फुलस्केप साइजके २५ पृष्ठों यह पद 'अपवेससतमझ' (अप्रवेशमान्तमध्यं) है, जिसका अथवा ८०० पंक्तियोसे कमका नहीं होना चाहिए और उसे अर्थ अनादिमध्यान्तहोता है और यह अप्पाणं (आत्मान) ३१ दिसम्बर सन् १९५२ तक विज्ञापकके पास निम्न पतेपर पदका विशेषण है, न कि 'जिनमामणं' पदका । रजिस्ट्रीसे भेज देना चाहिए । जो सज्जन किसी भी विषय- शुद्धात्माके लिये स्वामी समन्तभद्रने रत्नकरण्ड (६) में की पुरस्कारको रकममे अपनी ओरसे कुछ वृद्धि करना और सिद्धसेनाचार्यने स्वयम्भूस्तुति (प्रथम द्वात्रिशिका १) चाहेगे तो वह वृद्धि यदि २५) से कमकी नही होगी तो मे 'अनादिमध्यान्त' पदका प्रयोग किया है। समयसारके स्वीकार की जायगी और वह बढी हुई रकम भी पुरस्कृत एक कलशमें अमृनचन्द्राचार्यने भी 'मध्याद्यन्तविभागमुक्त' व्यक्तिको उनकी ओरसे भेट की जाएगी। पुरस्कृत लेखो- जैसे शब्दो द्वारा इमी बातका उल्लेख किया है। इन सब को छपाकर प्रकाशित करनेका वीरसेवा-मन्दिर-ट्रस्टको बातोको भी ध्यानमे लेना चाहिए। अधिकार होगा। विषयोंके नाम और तत्सम्बन्धी कुछ। सूचनाएं इस प्रकार है :
एक बात और भी स्पष्ट होने की है और
वह यह कि १०वी गाथामे शुद्ध नयके विषयभूत १. समयसारकी १५वीं गाथा--
आत्माके लिये पांच विशेषणोका प्रयोग किया गया इस गाथाकी ऐसी व्याख्या होनी चाहिए जिसके द्वारा है, जिनमेसे कुल तीन विशेषणोका ही प्रयोग १५वी यह स्पष्ट हो जाय कि आत्माको अबद्ध स्पृष्ट, अनन्य गाथामे हुआ है, जिसका अर्थ करते हुए शेष दो विशेषणोऔर अविशेष रूपसे देखने पर सारे जिनशासनको कैसे को भी उपलक्षणके रूपमें ग्रहण किया जाता है। तब देखा जाता है ? उस जिनशासनका क्या रूप है जिसे उस यह प्रश्न पैदा होता है कि यदि मूलकारका ऐसा ही द्रष्टाके द्वारा पूर्णतः देखा जाता है ? और वह जिनशासन आशय था तो फिर इस १५वी गाथामें उन विशेषणोको श्री कुन्दकुन्द, समन्तभद्र, उमास्वाति और अकलक जैसे महान् क्रमभग करके रखनेकी क्या जरूरत थी? १४वी गाथाके आचार्योके द्वारा प्रतिपादित अथवा संसूचित जिनशामनमे पूर्वार्धको ज्यों-का-त्यों रख देनेपर भी शेष दो विशेषणोको क्या कुछ भिन्न है ? यदि भिन्न नहीं है तो इन सबके द्वारा उपलक्षणके द्वारा ग्रहण किया जा सकता था। परन्तु ऐसा प्रति-पादित एवं संसूचित जिनशासनके साथ उसकी सगति नही किया गया, तब क्या इसमें कोई रहस्य है, जिसके स्पष्ट कैसे बैठती है? साथ ही यह भी स्पष्ट किया जाना चाहिए होने की जरूरत है ?