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________________ २१४ अनेकान्त [ वर्ष ११ २. श्री कुन्द कुन्द और समन्तभद्रका तुलना- ४. शुद्धि-तत्त्व-मीमांसा-- त्मक अध्ययन-- शुद्धिका मूल तत्त्व क्या है ? अशुद्धिका क्या स्वरूप है ? __ इस शीर्षक लेखमें श्रीकुन्दकुन्दाचार्य और स्वामी वह आत्मामें कहांसे तथा कैसे आती है और उसे कैसे अथवा समन्नभद्रके सभी उपलब्ध ग्रन्थोंका तुलनात्मक अध्ययन किन उपायोसे दूर किया जा सकता है ? अशुद्धिको दूर करते करके यह बतलानेकी जरूरत है कि दोनों आचार्य किस-किम हुए मानवको इसी जन्ममे तथा जन्मान्तरमे कितना ऊचा विषयमें परस्पर क्या विशेषनाको लिये हुए है ? दोनोंके उठाया जा सकता है ? बाह्यशुद्धि और अन्तरगशुद्धिका दृष्टिकोणमें क्या कही कुछ अन्तर है ? और दोनोंके द्वारा परस्पर क्या सम्बन्ध है ? दोनोंमे किसको कितना महत्व प्रतिपादित जिनशासन क्या एक ही है अथवा उसमे कही कुछ प्राप्त है ? और उनमेसे प्रत्येकका अधिकारी कौन है ? इन सब भेद है? यदि भेद है तो वह कहा पर क्या भेद है ? और बातोका सप्रमाण विवेचन एव स्पष्टीकरण इस लेखमे होना मौलिक है या औपचारिक ? साथ ही, यह भी स्पष्ट करके चाहिए और उसके लिये जन-जनेतर दोनो प्रकारकी दृष्टियोको बतलाना चाहिए कि दोनों आचार्योंके द्वारा जिनशासनकी सामने रखना चाहिए। विषयको पुष्ट करनेवाले कुछ प्रौढ तथा लोकको जो सेवाए हुई है वे अलग-अलग किस कोटि की उदाहरण भी साथमे सक्षेपतः प्रस्तुत किये जा सकते है। और फिनने महत्वकी है। दोनो आचार्योंके कथनोमे परसर समानता और असमानताको प्रदर्शित करनेवाली ५. विश्व-शान्तिका अमोघ उपाय-- एक सूची भी साथमे रहनी चाहिए। आजकल विश्वमे चारो ओर अशान्ति है और ऐसी अशान्ति है जैसी पहले कभी नहीं हुई। इस व्यापक अशान्ति३. अनेकान्तको अपनाए विना किसीकी का मूल कारण क्या है ? उसको दूर करनेका अमोघ उपाय भी गति नहीं-- कौनसा है ? और कैसे उस उपायको व्यवहारमे लाया जा अनेकान्तको प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूपसे अपनाये विना सकता है ? इन्ही सब बातोका विवेचन एवं स्पष्टीकरण कसे किसीकी भी गति नही बनती, इस बातको विशद इस लेखका विषय है। इस लेखमें शान्तिके सिद्धान्तोंकी रमण अकालका महत यापित करनेटा कोरी बाते ही न होनी चाहिएँ, बल्कि उनके व्यवहारकी इस लेख में यह स्पष्ट करके बतलाने की खास जरूरत है कि ठीक दिशाका भी बोध कराना चाहिए। साथ ही, यह भी कोई भी सर्वथा एकान्तवाद अथवा मत अपने स्वरूपका मुझाना चाहिए कि वतमानम शातिक उस उपा प्रतिष्ठापक नहीं हो सकता। इसके लिये संसारके ऐसे कुछ या उपाय-समूहको काममें लानेके लिये क्या-क्या बाधाएँ प्रमुख सर्वयकान्तवादी प्रचलित मतों तथा वादोको चुनकर उपस्थित है और उन्हे कैसे अथवा किस व्यापक तरीकेसे यह सप्रमाण दिखलाना होगा कि वे कैसे अपने स्वरूपके दूर किया जा सकता है। इसमें भी जैन-जनेत्तर दोनों प्रतिष्ठापक नही हो सकते और कैसे उनके द्वारा लोकका दृष्टियोसे विचार होना चाहिए। व्यवहार नही बन सकता। लोकव्यवहारको बनाये रखने पुरस्कारदानेच्छुक के लिये यदि वे दूसरे प्रकारकी कुछ कल्पनाए करते हैं तो अपने सैद्धान्तिक दौर्बल्यको प्रदर्शित करते है और जुगलकिशोर मुख्तार प्रकारान्तरमे उस अनेकान्तवादको अपना रहे है जो सापेक्ष वीरसेवामन्दिर, सरसावा (सहारनपुर) नयवादका विषय है । इस विषयका एक नमूना अनेकान्तके ------- गत 'सर्वोदयतीर्थाक' मे पृष्ठ ११, १२ पर प्रकट किया गया नोट-इस विज्ञप्तिको दूसरे पत्र-सम्पादक भी अपनेहै, उसे ध्यान में रखना चाहिए। अपने पत्रोंमें देनेकी कृपा करे, ऐसी प्रार्थना है।
SR No.538011
Book TitleAnekant 1952 Book 11 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1952
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size29 MB
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