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________________ अनेकान्त वर्ष ११ जो पत्थर लगे है वे सब इस बात को सूचित करते है कि इस दृष्टिसे उन्हें अपनाये हुए है और इसलिये कभी विरोध तथा तीर्थमें स्नान-अवगाहन करनेसे ये सब तात्त्विक समस्यायें मिथ्यादर्शनके रूपमें परिणत नहीं होता । और अहिंसापद सहजमें ही हल हो जाती है। और इधर-उधरके द्वीन्द्रियादि समनस्क पर्यन्त पांच प्रकारके त्रसजीवों और अहिंसा तटोंके नीचे की पैडियोंमें जो दया-प्रतादि तथा पृथ्वी-जल-अग्नि-वायु-वनस्पति-काय के रूपमें पंच प्रकारके मैत्री-समतादि रूप पत्थर लगे है वे सब इस बात को सूचित स्थावर (एकेन्द्रिय) जीवोंको अहिंस्य मानकर उन्हे अभय करते है कि इस तीर्थ में स्नान-अवगाहन करना ही अपने को प्रदान किये हुए है । मूलमें इन्हीं दो चरणोपर शासनका इन दया-प्रतादिरूपमें परिणत करना है, जो सब शान्ति-सुख- सारा शरीर खड़ा है। जिनेन्द्रके जिन दो चरणोंको पापोंका का मूल है। तीर्थके ऊपर आकाशमें जो दो देवविमान नाश करनेवाला मानकर उन्हें प्रणाम किया जाता है वे वस्तुतः दिखाई पड़ रहे है वे तीर्थ की गरिमाको अलगसे ही प्रकट अनेकान्त और अहिंसाके रूपमें ही है। अनेकान्तके द्वारा कर रहे है। विचारदोष और अहिंसाके द्वारा आचार-दोष मिटकर दूसरा एकरंगा भीतरी चित्र 'शास्ता वीरजिन अथवा वीर- मनुष्यक विकासका सारा भूमिका तय्यार हो ज जिन-शासन'का एक बड़ा ही सुन्दर, सजीव एवं मनोमोहक भार अन्तम दाना उपक्षाक रूपम परिणत हाकर उस सिडि रूप है । शास्ता अपने शासनको अपने ही अगोंमें अंकित । को प्राप्त करनेमे समर्थ होते है जिसे 'स्वात्मोपलब्धि' तथा किये हुए कितना दिव्य जान पड़ता है। उसके मुखपर सद् 'ब्रह्मपदप्राप्ति के रूपमें उलेखित किया गया है। इसी आत्मदृष्टिके साथ प्रज्ञा, प्रसन्नता, अनासक्ति और एकाग्रता विकास और उसके साधनो आदिका सूत्ररूपमें निदर्शक यह खिलखिला रही है। यह चित्र अपना खुद का परिचय और चित्र है, जिसे सामने रखकर आत्मविकास और उसके साधनों भी अधिकताके साथ स्वय दे रहा है और इसलिये इसके की कितनी ही शिक्षा प्राप्त की जा सकती है और महीनों विषयमें अधिक लिखनेकी कोई जरूरत मालूम नहीं होती। तक वीरशासनका विवेचन करते हुए उसके अभ्यासको यहां पर सिर्फ इतना ही व्यक्त किया जाता है कि वीरजिन बढाया एवं ध्यानादिके द्वारा उसे अपने जीवनमें उतारा जा सकता है। यह चित्र प्रत्येक घरमें किसी योग्य अथवा उनके शासनके दो पद है-दाहिना पद 'अनेकान्त' स्थानपर कांचादिमें जड़ाकर लगानेके योग्य है, इसीसे और बाया पद आहसा । अनकान्त पद अपनम एकान्त, इसकी कुछ कापिया अलग भी छपाई गई है। दूसरे दुरंगेविपरीत. संशय, विनय और अज्ञान नामके पंचविध मिथ्या चित्रकी कापिया भी प्रेमियोंको अलगसे मिल सकेंगी। प्रत्येक दर्शनों (मिथ्यात्वो) के समूहका समन्वय किये हुए है-सापेक्ष चित्रका मूल्य दो आने है। -:SSET Kath-... VAAST MPART 2 -MA . gent ABISAL वीरसेवामन्दिरको बिल्डिग का एक भीतरी दृश्य
SR No.538011
Book TitleAnekant 1952 Book 11 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1952
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size29 MB
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