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________________ सम्पादकीय ९१ - - पाठकोंकी सेवामें प्रस्तुत है । यद्यपि अपनी अस्वस्थताके वीरजिनालय नजर आरहा है, उसके सामने एक योगिराज कारण मै इसके कितने ही अंगों की पूर्ति नहीं कर सका हूं, प्रवचन कर रहे हैं, जिसे सभी वर्ग-जातियोंके लोग बड़ी फिर भी जो कुछ कर सका हूं उसका प्रधान श्रेय उन विद्वान् तन्मयताके साथ सुन रहे है और ऐसा मालूम होता है कि लेखकोंको है, जिन्होंने रोग-शय्यापरसे भेजे तथा भिजवाये योगिराज तीर्थका सम्यक् परिज्ञान कराते हुए लोकहृदयमें हुए मेरे पत्रोंका आदर कर अपने लेखोंको भेजनेकी कृपा उसके प्रभावको अंकित कर रहे है । जिनालय और प्रवचनकी है । इस कृपाके लिये मै उन सबका बहुत आभारी हूं। सभाके मध्यमें चूहा-बिल्ली, मोर-सर्प जैसे जाति-विरोधी भाशा है वे तथा दूसरे विद्वान् भी ,जो किसी कारणवश इस जीव अपना वैर-विरोष भुलाकर प्रसन्नमुद्रामें एक साथ बैठे विशेषाङ्कमें अपने लेख नही भेज सके है, भविष्यमें बराबर हुए है, जिससे योगिराजके योगमाहात्म्य अथवा जिनशासनके अनेकान्तको अपने महत्वपूर्ण लेखोसे भूषित करते रहेगे महात्म्यका कितना ही पता चलता है। सबके ऊपर शिलाऔर ऐसा करना अपना एक पवित्र कर्तव्य ही बनानेकी कृपा लेखादिके रूपमें एक श्लोक अकित है जिसमें वीरके इस करेंगे, जिससे अनेकान्त विश्वमें जैनसमाजका एक आदर्श- तीर्थ को ही 'सर्वोदयतीर्थ' बतलाया गया है । यह श्लोक पत्र बननेकी क्षमताको प्राप्त कर सके। इसके लिये धनिकों- स्वामी समन्तभद्रका वाक्य है, जिन्होंने अपने समयमें इस को भी संरक्षाकादिके रूपमें अपना पूर्ण सहयोग प्रदान करना तीर्थकी हजार गुणी वृद्धि की है, जिसका उल्लेख एक पुरातन होगा और दानके सभी शुभ अवसरोंपर इसे याद रखना शिलालेखमें पाया जाता है और जिन्हे ७वीं शताब्दीके होगा। अकलंकदेवजसे मर्दिक आचार्यने 'कलिकालमें इस तीर्थ यहांपर मै खास तौरपर बा० छोटेलाल जी जैन को प्रभावित करने वाले' कहकर नमस्कार किया है। उनका कलकत्ताका आभार व्यक्त किये बिना नही रह सकता, वह नमस्कार तीर्थजलके तलमें स्थित श्लोकके प्रथम तीन जिन्होंने स्वयं रोग-शय्यापर आसीन होते हुए भी मेरी प्रार्थना- चरणोंमें अंकित है, जिनमें इस तीर्थको सर्व-पदार्थ-तत्त्वोंको को मान देकर खण्डगिरि-उदयगिरिके सम्बन्धमेंअपना महत्त्व- अपना विषय करनेवाला स्याद्वाद अथवा अनेकान्तवादरूप का खोजपूर्ण लेख चित्रोसहित भेजनेकी कृपाकी है और पुण्योदधि प्रकट किया है। और इस तीर्थकी प्रभावनाका हर एक किरणके लिये चित्रोंके आयोजनका आश्वासन उद्देश्य 'भव्य-जीवोंके आन्तरिक मलको दूर करना' लिखा देकर मुझे प्रोत्साहित किया है । साथही, आपके लघुभ्राता है। चौथे चरणमें इस तीर्थके अधिनायक और समन्तभद्रके बाबू नन्दलालजीको विशेष धन्यवाद अर्पण किये बिना भी अधिनायक श्रीवीरजिनेन्द्रको नमस्कार समर्पित किया भी नहीं रह सकता जिनकी १५००) रु. की पहली सहायताने गया है। और इससे प्रवचनकर्ता योगिराज वे ही तीर्थके और प्रेरणाओने अनेकान्तके इस नये आयोजनमें अमृत- महाप्रभावक आचार्य स्वामी समन्तभद्र जान पड़ते हैं। सिंचन का काम किया है और जो अनेकान्तसे गाढ़ प्रेम रखते वीर-जिनालयसे कुछ दूरीपर एक स्तम्भ खड़ा है जो मानस्तम्भहै। आशा है कुछ ऐसे उदार महानुभाव भी शीघ्र ही आगे का प्रतिनिधित्व करता हुआ मालम होता है। नीचे तीर्थजलमें आएंगे जो अनेकान्तके ग्राहकोंको उपहारमे किसी-न-किसी यात्रीजन स्नान-अवगाहन कर रहे है और उनमें अनेक उत्तम ग्रन्थका आयोजन करके उनके ज्ञानमें वृद्धिका कारण जातियोंके स्त्री-पुरुष शामिल है। एक तरफ शेर और बकरी बनेंगे और उन्हे अनेकान्तकी ओर आकर्षित करनेमें सविशेष एक ही घाटर पर इकट्ठे पानी पी रहे है और तीर्थके रूपसे सहायक होगे। मै ऐसे सभी संरक्षकों, सहायकों और महात्म्यको व्यक्त कर रहे है। दूसरी तरफ 'रनत्रय" नाम उपहारदाताओंका अभिनन्दन करनेके लिये प्रस्तुत हूं। का पोर (जहाज) खड़ा है जो आश्रितोंको संसार-समुद्रसे २. चित्र-परिचय पार करनेके लिये उद्यमी है । इस तीर्थकी पैडियोंमें जो पत्थर इस विशेषाङके मुख-पृष्ठपर जो दुरंगा चित्र है लगे है वे अपनी खास विशेषता रखते हैं। अनेकान्त-तटके वह अधिकांशमें अपना परिचय आप दे रहा है। नीचेवाली दोनों पैडियों की दीवार में सत्-असत् आदि और उसपर दृष्टि पड़ते ही बृहद्वारके भीतर एक तरफ हित-अहित आदि तात्त्विक युगलों (जोड़ों) को लिये हुए
SR No.538011
Book TitleAnekant 1952 Book 11 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1952
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size29 MB
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