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________________ सम्पादकीय १. अनेकान्तका नया वर्ष जा रहा है । निजी सम्पत्तिकी समाप्तिपर पत्र बन्द हो इस सर्वोदयतीर्थाकूके साथ अनेकान्तका नया वर्ष । जायगा तो कोई बात नहीं। परन्तु इच्छा रहने पर भी मैं (११वी) प्रारम्भ हो रहा है। इस विशेषाङ्कको लेकर : कुछ परिस्थितियोंके वश मजबूर था और इन सब प्रेरणाओं 3 बनेकान्त अपने पाठकोंकी सेवामें करीब १॥ वर्षके बाद पर विशेष ध्यान नहीं दे सका। उपस्थित हो रहा है। दसवें वर्षमें अनेकान्तको लगभग दैवयोगसे गत अक्तूबर मासमें मेग बा. छोटेलालजीसे ढाई हजारका घाटा रहा था, जिससे पत्रको आगे चाल मिलनेके लिये कलकत्ता जाना हुआ, जहां उस समय बेलरखनेके लिये एक विकट समस्या खड़ी हो गई थी। चुनांचे गाछयाम इन्द्रध्वज-विधान हो रहा था। अनेकान्तकी चर्चा पारेका विमान प्रकट करने का यह मानना चली और एक सज्जन श्री बी. आर. सी. जैनने यह प्रस्ताव की गई थी कि “जब तक इस वर्षके घाटे की पूर्ति नहीं हो रक्खा कि अनकान्तका स्थायित्व प्रदान करन एव सुचारुरूपसे जाती तबतक आगेके लिये (पत्रको निकालनेका) कोई चलानेके लिये संरक्षकों और सहायकोंका एक आयोजन विचार ही नहीं किया जा सकता । अतः अनेकान्तके प्रेमी किया जाय। जो सज्जन २५१) या इससे अधिककी सहायता लिये रब जब कोई व्यवस्था प्रदान करें वे 'संरक्षक' और जो १०१) या ऊपर की सहाठीक हो जावेगी तब उन्हें सूचित किया जायगा।" साथ ही यता प्रदान करें वे 'सहायक' करार दिये जायं, दोंनोंको पत्र प्रेमी पाठकोंको यह प्रेरणा भी की गई थी कि "अनेकान्तकी सदा भेंटस्वरूप भेजा जाय और संरक्षकों तथा सहायकोंइस घाटापूतिमें यदि वे स्वयं कुछ सहयोग देना तथा दूसरों- की शुभनामावली बराबर अनेकान्तमें प्रकाशित की जाय । से दिलाना उचित समझें तो उसके लिये जरूर प्रयत्न करें।" यह आयोजन सबको पसन्द आया। बाबू नन्दलालजी सरावपरन्तु प्रायः किसीका भी ध्यान उस ओर गया मालम नहीं गीकी १५००) रु. की सहायताने इस आयोजनको विशेष होता और इसलिये सालभरके करीबकासमयतो यों ही निकल प्रोत्साहन दिया । और उनकी तथा दूसरे भी कुछ सज्जनोंगया। इस बीचमें कितने ही प्रेमी पाटकोंके पत्र ऐसे जरूर की साधरणसी प्रेरणाको पाकर उसी समयके लगभग कलकभाते रहे हैं कि 'अनेकान्त क्यों नही आ रहा है? उसे शीघ्र तामें १३ संरक्षक और ९ सहायक और बन गये जिन सबके भेजिये, वी.पी. से भेजिये, ग्राहकश्रेणीमें हमारा नाम लिख नाम तथा बादको बने हुए संरक्षकादिके नाम भी अन्यत्र लीजिये, उसका बन्द रहना उचित नही, वही तो समाजमें एक प्रकाशित है और जो सब धन्यवादके पात्र हैं। पत्र है जिसे पढ़कर ज्ञानमें वृद्धि तथा कुछ नई प्राप्ति होती इस आयोजनके अनुसार अनेकान्तके प्रस्तुत विशेषांकहै और जिसे गौरवके साथ दूसरे विद्वानोंके हाथोंमें दिया को गत जनवरी मासके शुरूमें ही निकालनेका विचार जा सकता है, इत्यादि।' एक मित्रने तो यहां तक भी प्रेरणा किया गया था; परन्तु कलकत्तासे आते ही मेरे बीमार पड़ करनेकी कृपा की कि अनेकान्त-जैसे उच्च आदर्शका पत्र जाने, निमोनियाके चक्करमें फंस जाने और भारी कमजोरी घाटेके कारण बन्द न होना चाहिये, घाटेकी पूर्तिका उपाय हो जानेके कारण वह विचार कार्यमें परिणत न हो सका। किया जाय, यदि समाजका ध्यान उसकी पूर्तिकी ओर न कुछ शक्तिके संचित होते ही अनेक मित्रोंके मना करनेपर जाय तो अपनी उस सम्पत्तिको बराबर अनेकान्तके घाटों भी मुझे अपनी जिम्मेदरीको समझते हुए कार्यमें जुट जाना की प्रतिमें ही लगा दिया जाये जिसे वीरसेवामन्दिको दिया पड़ा और उसीके फलस्वरूप अनेकान्तका यह विशेषार
SR No.538011
Book TitleAnekant 1952 Book 11 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1952
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size29 MB
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