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________________ किरण १०] इलायची [३५७ संसारमें विभिन्न दो पदार्थों का संप्रोग अनेक गुणोंका इसी कारण संमारमें इलायचीको इतना बड़ा महत्व समुत्पादक है उनकी संगति अथवा समागम हर्ष और रोष एवं सम्मान प्राप्त है कि समस्त शुभ अवसरों पर अथवा का कारण है। यद्यपि ये दोनों पदार्थ अपने अपने स्वतन्त्र अपने गृह पर पाए हुए बड़े से बड़े और महानसे महान् अस्तित्वको लिये हुए हैं। वे कभी एक नहीं हो सकते । व्यक्तिका आदर इन इसाचियोंके पेश करने पर समझा उदाहरणके लिये उसी इलायचीके स्वरूप पर दृष्टि जाता है, इलायची देने वालेका हृदय इलाचियोंको दोनों डालिए। हाथमें लेकर बड़ा ही विनम्र प्रतीत होता है, बड़े ही छिलका जिसका मूल्य बीजाके साथ रहने पर बीजोंके प्रसन्न चित्त और समादरणीय भावसे भरी हुई इलाचियोंसाथ तोला जाता था वह ही छिलका बीजोंमे पृथक होने पर की तश्तरी उस आगन्तुक व्यक्तिके अन्तर मानसमें आदर, मूल्य रहित जान कर इधर उधर फेंक दिया जाता है, यह स्नेह, निर्मलता, कोमलता, मित्रता, एकता, निरहंकारता कैसी माया है ? छिलके में और बीजमें इतना अन्तर क्यों? और निःस्वार्थता आदि गुणोंको स्वयं ही व्यक्त कर देती जब एक ही वस्तुको अभेद दशामें देखा गया तो दोनोंका है। और मानवीय आन्तरिक भद्रताको भी किंचित् प्रकट मूल्य एक सा-और एक साथ एक वस्तुमें दो भेद करने करनेमें समर्थ हो जाती है। उसका उपयोग करने वाले पर मूल्यमें इतना अन्तर क्यों? एककी रक्षा, दूसरेकी व्यक्तिका हृदय भी फूल जाता है। वह केवल एक ही अरक्षा, एकका सम्मान दूसरेका अपमान, एकको गुण और इलायची उठा कर सन्तुष्ट हो जाता है, अपने हृदयमें उसी दूसरेको अवगुण, एकको उपादेच दुसरेको हेय, एकमें रुचि मैत्रीभाव और एकता आदि सद्गुणोंको स्थान देता है। दुसरमें अरुचि, एकमे गुरुता दूसरेमें लघुता, एकमें सार जिस समय दो मित्र बांधव इस प्रकारकी श्रादर व दुसरेमें निस्सार, एक स्वभाव दूमरमें विभाव, भादि सरकारकी क्रिया में प्रवृत्त होते हैं तो उस समय उन दोनों अनेक स्वरूप प्रकट हो रहे हैं। का हृदय इतना सन्तुष्ट और सरल क्यों हो जाता है-देने ___ यही बात आत्मा और शरीरके स्वरूप चिन्तनमें वाला तो थाल भर कर देता है और लेने वाला केवल लक्षित है, शरीर पर, जड़स्वरूप है, और प्रान्मा चैतन्यस्व- एक ही इलायची लेकर सन्तुष्ट हो जाता है। ऐसा होने रूप होकर भी अनंत गुणोंका पिण्ड है। आत्माकी वजहमे पर भी दोनोंका मन प्रसन्न ही रहता है। शरीरकी भी प्रतिष्ठा होती है, और उसके अभावमें उसे संसारमें पदार्थों की विभिन्न जातियां हैं-उनकी किस्में अग्निमें जला दिया जाता है। जब दोनों साथ रहते हैं तब अनेक होते हुए भी उनके गुणां-(रूप-रम) में भेद पाया दोनों ही एक दूसरेके कार्यों में सहयोगी बने रहते हैं। कभी जाता है। फिर भी उनमें अच्छा और बुरापन नहीं पाया आत्माको शरीरके अनुकूल क्रिया करनी पड़ती है, और जाता; किन्तु यह मोही जीव उनमें दो प्रकारकी कल्पना कभी शरीरको आत्माके अनुकूल चलना पड़ता है। एकके करता है इष्ट और अनिष्ट, अपनी इच्छानुकूल परिणामको कष्टमें दूसरेको भी कष्टका अनुभव एवं दुख उठाना, और इष्ट कहते है और उमसे विपरीतको अनिष्ट । यहां यह अपमानका घूट पीना पड़ता है। उनमें एक उपादेय और जान लेना आवश्यक है कि पदार्थों में इष्ट अनिष्टता नहीं दूसरा घृणाका पात्र और हेय है। दोनों ही एक दूसरेके है। अपनी बौद्धिक कल्पनामें ही इष्टता और अनिष्टता है विभाव-स्वभावमें निमित्त नैमित्तिक बन रहे हैं। फिर भी और वह रुचि विभिन्नताका परिणाम जान पड़ता है। दोनोंका अवस्थान एक जगहमें देखा जाता है पर वे एक यदि उक्त कल्पना न होती तो जो पदार्थ हमें अनिष्ट नहीं हो सकते । अपने-अपने लक्षणोंसे जुदे जुदे प्रतीत होता है वही पदार्थ दूसरेको इष्ट क्यों लगता है और होते हैं। जो हमें इष्ट जान पड़ता है वह दूसरेको अनिष्ट क्यों इलायचीमें अनेक गुण है जहाँ वह मिष्ट और शीतल मालूम देता है, इससे स्पष्ट है कि यह कल्पना केवल है वहाँ वह भोजनको पचाने में भी समर्थ है। उसका दवा- हमारी मान्यताका परिणाम है, पदार्थ जैसाका तैसा है, इयोंमें भी उपयोग किया जाता है। गर्मी में शान्ति प्रदान उसमें हमारी राग द्वेषरूप परिणति ही इष्ट अनिष्ट करती है। और जी मिचलाने पर मुखके विकृत जायके कल्पनाकी जनक है। पदार्थ तो अपने स्वरूपमें ही रहता है (स्वाद) को दूर करती है। उसमें उस प्रकार का राग-द्वेष भाव नहीं होता। हां, एकही
SR No.538011
Book TitleAnekant 1952 Book 11 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1952
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size29 MB
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