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________________ ३५८] अनेकान्त [किरण १० % 3D - पदार्थ एक समयमें इष्ट जान पड़ता है और वही पदार्थ दूसरे है। वह उस उत्कंठाकी पूर्तिके प्रभावमें अथवा उस वस्तुसमयमें अनिष्ट प्रतीत होता है जिस तरस धप और वर्षामें की प्राप्तिमें बेचैन रहता है। जब तक यह अभिलषित छतरी आवश्यक और हष्ट मालूम होती है। किन्तु धूप पदार्थों का उपयोग नहीं कर लेता तब तक उसके चित्त में आदिके अभावमें वही बोफरूप प्रतीत होती है। इससे विकलता और घबराहट अपना स्थान बराबर बनाये रहती यह बात और भी स्पष्ट हो जाती है कि यह कल्पना है। इन्द्रिय-विषयों में से कदाचित् उसे किसी एक विषयमनुष्यकी स्वार्थ बुद्धिका परिणाम मात्र है, यह उम वस्तु- की प्राप्ति हो जाती है तो फिर अन्य पदार्थकी इच्छा की विशेषता नहीं। यदि इसे वस्तुको विशेषता माना जाय उसे विकलता या दाह उत्पन्न करने लगती है। इस तरह तो फिर मनुष्यकी स्वार्थ कल्पनाका क्या होगा? यह जीव अपने ही स्वरूपको भूलकर परमें प्रात्म-कल्पना इलायचीका उपयोग भोजनके साथ भला क्यों प्रतीत वश दुःखका पात्र बनता है, और अागामी अनन्त दुःस्वानहीं होता? भोजनके बाद ही भागन्तुक महाशयको क्यों दी का कारणभूत कर्मोका संचय करता रहता है । इस कारण जाती है? क्या यह इलाचोकी ही विशेषता है.जो भोजन उसे उनसे छुटकारा नहीं मिलता, वह उस घटी यन्त्रके के साथ उसका उपयोग इष्ट नहीं प्रतीत होता, वास्तवमें । समान बराबर चक्कर लगाता ही रहता है। इलायची में भी अच्छा या बुरापन नहीं है । इलायची तो इलायची मनुष्यको एक सुन्दर पाठकी और भी शिक्षा अपने गुणांसे जैसीकी तैसी है। भोजनके पश्चात् हम देती है और वह यह कि संसारके सभी विषय उस छिलके अपने स्वादको सुगन्धित और स्वादिष्ट बनानेका अनुभव के समान नीरस और घृणाके पात्र हैं। जिस तरह इलाकरते हैं इसीसे हम उसे उपादेय समझते हैं; क्योंकि वह यचीस छिलकेको निकालकर उसे नीरस और अप्रिय समझ कर फेक दिया जाता है। यदि इलायचीके बीजोंसे हमारे अभिलषित स्वादको सुगन्धित, शीतल और मधुर बनाने में निमत्त है इसी कारण वह हमें प्रिय मालूम देनी छिलकेको अलग करने पर भी वह अपने रूपादि गुणोंके है। किन्तु यदि वही इलायची किसी पित्तज्वर वाले रोगी साथ स्वादमें विभिन्न और अरुचि कारक नहीं होता तो वह बीजकी तरह ग्राह्यक्यों नहीं होता ? ठीक उसी प्रकार को दी जाती है। तो वह कड़वी और बेस्वाद प्रतीत होती इन्द्रिय विषय भी भोगनेके बाद अरुचिकारक और अनिष्ट है। यद्यपि उस इलायची में स्वाभाविक परिवर्तनको छोड़कर कोई विशेषता या भेद नहीं हुआ है, किन्तु उस रोगी प्रतीत होते हैं, तब यह जीव उन्हें छोड़ना चाहता है उनसे दूर होना चाहता है, परन्तु अपनी शक्ति अथवा मनुष्यके स्वादमें अवश्य परिवर्तन हुना है-पित्तज्वरके उदयने उसके स्वादमें विपरीतता ला दी है-वह अपने कमजोरीसे उनका परित्याग नहीं कर पाता । जो विषय आज इष्ट प्रतीत होते हैं वही कल अनिष्कर हो जाते हैं। स्वभावसे विकृत हो गया है, इसी कारण उस रोगीको यह उन्हें चाहता है पर वे उसे छोड़कर चले जाते हैं, यह वह इलायची अरुचि कारक एवं कडुवी प्रतीत हुई है यही उनकी अप्राप्तिमें दुम्वका पात्र बनता है। अथवा उन्हें रुचिभेद उसकी विशेषताका कारण है। अयोग्य, नीरस या दुख कारक समझकर उनका स्वयं परिसंसारके पर-पदार्थों में मोही जीवकी भी यही दशा है। त्याग कर देता है। वह छिलका अपने समान इन्द्रिय विषवह भ्रमवश पर-पदार्थको इष्ट अनिष्ट कल्पनाका जनक याँको नीरस, दुखद, पराधीन और घृणाका पात्र प्रकट जान कर उनमें रागद्वेष स्वयं करता रहता है और उससे करता है। इलायचीके समान संसारके अन्यपदार्थोंका उसकी संसार-परम्परा बरावर बढ़ती रहती है। वह अपनी स्वरूप भी हमें अपने प्रात्मस्वरूप चिन्तनकी ओर ले विभिन्न कल्पनाद्वारा अपनेको सुखी-दुखी अनुभव जाता है। पर हम अज्ञानताके कारण उनके भूल्यको नहीं करता अथवा मानने लगता है। पर मोहके उदयमे उसे प्रांकते । ये सब पदार्थ हमारे विवेक अथवा शानकी पुष्टि ही अपनी उस विपरीत कल्पना अथवा परिणतिका कोई अनु नहीं करते प्रत्युत हमें वस्तु स्थितिका यथार्थ दर्शन कराकर भव या पता नही हो पाता, यहा उसका कमजारा ह । हमारी वे सभीभापत्तियोंका निरसन करने में समर्थ होते हैं। ही, पदाकि उपभोगकी पाकाचा प्रत्येक समय उसके मनुष्यको सरष्टि प्रास होनी चाहिये, उसीके आधारपर वह मन बचन और काममें बराबर उत्कंठा उत्पन्न करती रहती अनेक पदार्थों से अच्छे पाठ ग्रहण कर सकता है।
SR No.538011
Book TitleAnekant 1952 Book 11 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1952
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size29 MB
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