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विजोलियाके शिलालेख
(पं० परमानन्द जैन शास्त्री) विजोलिया दीके एक कोने पर बसा हुआ है, जो है इस शिखरके पीछे वेदीका प्राकार बना हुआ है जिसमें उदयपुरसे उत्तर-पूर्व ११२ मील है, तथा कोटासे पश्चिम मूर्ति स्थापित होनेके निशान पाये जाते हैं। चारों तरफ ३२ मील है। इसका प्राचीन नाम विन्ध्यावली था, इस दीवार पर मुनियों (भट्टारकों) की मूर्तियाँ उस्कीणित हैं। नगरके शासक 'राव' या 'रावल' कहलाते थे, उन्हें 'सवाई' और एक लाइनमें कुछ लिखा हुश्रा भी है, परन्तु वह की उपाधि भी प्राप्त थी । विजालियाके यह राव मालवाके ___ पढ़ा नहीं जाता। मन्दिरसे सभामण्डप सटा हुआ है परमार राजाओंके वंशधर हैं जिनकी राजधानी कभी उज्जैन जिसकी लम्बाई चौड़ाई ३६४ २५ फुट हैं। इसमें १४ और कभी धार रही है। दिल्लीके सुलतान मुहम्मद तुगलक- खम्भे लगे हुए हैं। मण्डपके देखनेसे वह प्राचीन जान के समय मालवाका प्रायः सभी प्रदेश मुसलमानोंके अधि- पड़ता है। मन्दिरको चौग्वटमें दाहिनी बाजू पर सं० १२२६ कारमें चला गया था, इस कारण परमारोंके कुछ वंशधर की निम्न पंक्ति अंकित है-“साधु महीधर पुत्र मेवाअजमेर और पुछ दक्षिणादि प्रान्तोंमें चले गये थे। यह- रयो प्रणमनि नित्यं सम्बत १२.६ वैशाख कृष्णा १५।" सन् १६१० में रोवाइसे यहाँ पाये थे। इस ग्राममें ७०. मुख्य मन्दिरके चारों तरफ दुहरी गुम्बजदार चार गुमठियाँ घर हैं उनमें दि. जैनियोंके भी ४६ गृह हैं जिनकी जन- बनी हुई हैं जिनकी भीतों पर मुनियोंकी मूर्तियोंके अंकित संख्या १८६ के करीव है । वस्ती में राजमहलके पास एक होनेके निशान पाये जाते हैं। मन्दिरके सामने दो मानदि० जैन मन्दिर है जिसमें एक फुट अवगाहनाकी स्फटिक स्तम्भ हैं। पहला मानस्तम्भ दाहिनी ओर जमीनसे बाहर मणिकी एक मूर्ति पद्यामन विराजमान है जिसकी प्रतिष्ठा ६ फुट ऊँचा है। ऊपरके भागमें चार तीर्थंकरोंकी खडगासन पानीपतवामी सिकरचन्द बगदा वघेरवालने कराई थी इसके प्रतिमा विराजमान है, चन्द्रप्रभु, नेमिनाथ, वर्द्धमान और सिवाय तीन प्रतिमा, ऋषभदेव, पार्श्वनाथ और महावीर पाश्वनाथ । इनमेसे भगवान पार्श्वनाथकी मूर्तिके नीचे दो भगवानकी चार फुट अवगाहनाकी और भी पशासन विरा- मुनियोंकी मूर्तियाँ अंकित हैं जिनके मध्यमें शाख रग्बकर जमानो पानी
जनक गिर पढ़नेकी रिहल (चौकी) का आकार भी बना हुआ है। जानेसे उनके पाषाण उक्त कस्बेके किले में लगा दिये गए
पहले स्तम्भमें भट्टारक पधनंदिदेव और दूसरेमें भट्टारक थे। फिर भी जो मन्दिर इस समय विद्यमान है वे भी
श्री शुभचन्द्रदेवका नाम उस्कीर्ण है और दोनोंके मध्यमें दो अपनी प्राचीनतामें कम महत्वके नहीं हैं। विजोलियाके
कमंडलु बने हुए हैं और उनके नीचे उनके चरण खुदे हुए पूर्व में कोटके समीप तीन शिव मन्दिर हैं, जिनमें एक मन्दिर
हैं। अशिष्ट तीनो योर ३ मुनियोंकी खड्गासन मूर्तियाँ हजारेश्वर (सहस्रलिंग) महादेवका है, और दूसरा मन्दिर भी उत्कीर्ण है उनके चरणाके नीचे एक लेख संस्कृत महाकालका तथा तीसरा मन्दिर बैजनाथका, जिसमें खुदाई
मला भाषामें १२वीं शताब्दीका खुदा हुआ है जिसका कुछ भाग का काम बड़ा ही सुन्दर हुआ है।
जमीनके अन्दर दबा हुया है। वह जिस रूपमें मुझे उपविजोलिया कस्वेसे अग्निकोणमें एक मीलके करीब लब्ध हुआ है वह आगे दिया जाएगा। यह लेख सम्बत् एक दि० जैन मन्दिर है जिसके चारों कोनों पर चार छोटे- १४८३ फाल्गुन सुदि ३ गुरुवारका है जिसमें मूल संघ छोटे मन्दिर और भी बने हुए हैं। इन मन्दिरोंको पंचाय- सरस्वतिगच्छ बलात्कारगण कुन्कुन्दान्व के भट्टारक श्री तन' कहा जाता है। ये पांचों ही मन्दिर एक कोटसे घिरे वसन्तकीर्तिदेव, विशालकीर्तिदेव, दमनकीर्तिदेव, धर्मचन्द्रहुए हैं। इनमें मध्यका मुख्य मन्दिर जैनियोंके तेवीसवें देव, रत्नकीतिदेव, प्रभाचंद्रदेव, पानन्दि और शुभचंद्रदेवके तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथका है। दरबाजेके सामने में नाम अंकित हैं। यह निषेधिका प्राथिका प्रागमश्री की शिखरबन्द मन्दिर है जिसके मध्यमें एक ताक है जिसकी स्मृति में बनाई गई है। महराव पर २३ प्रतिमाएँ अंकित हैं, परन्तु ताक खाली ही दूसरा मानस्तम्भ जमीनसे ५ फुट ऊँचाहै जिसमें