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अनेकान्त
[ किरण १०
उसमें सकलसंयमी और देशसंयमी दोनों प्रकारके यतियोंका ग्रहण किया है।
इन कारिकाओं में प्रयुक्त हुए 'धमाय', अनपेक्षितोपचारोपकियं', 'गुणरागात्' और' याबानुपग्रहः' पद अपना खास महत्व रखते हैं। 'यावानुपग्रहः' पदमें दूसरा सब प्रकारका उपकार, सहयोग, साहाय्य तथा अनुकूलवर्तनादि बाजाता है जिसका इन दोनों कारिकाओंमें स्पष्ट रूप
उल्लेख नहीं है । उदारणके लिये एक संयमी किसी ग्रन्थका निर्माण करना चाहता है उसके लिये आवश्यक विषयोंके ग्रन्थों को जुटाना, ग्रन्थोंमेंसे अभिलषित विषयों को खोज निकालने श्रादिके लिये विद्वानोंकी योजना करना, प्रतिfafe आदिके लिये लेखकों (क्लकों) की नियुक्ति करना और ग्रन्थके लिखे जाने पर उसके प्रचारादिकी योग्य व्यवस्था करना, यह सब उस संयमीका आहार औौषधादिके दानसे भिन्न दूसरा उपग्रह है, जैसा कि महाराज अमोघ - वर्षने आचार्य वीरसेन-जिनसेनके लिये और महाराज कुमारपालने हेमचन्द्राचार्य के लिये किया था। इसी तरह दूसरे सद्गृहस्थों-द्वारा किया हुआ दूसरे विद्वानों एवं साहित्य तपस्वियोंका अनेक प्रकारका उपग्रह है ।
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सब प्रोषधोपवासका श्रतीचार-पंचक है - इस व्रत के पांच अतीचारोंका रूप है। दानं वैयावृत्यं धर्माय तपोधनाय गुणनिधये । अनपेक्षितोपचारोपक्रियमगृहाय विभवेन ॥ १११ ॥ व्यापत्तिव्यपनोदः पदयो: संवाहनं च गुणरागात् । वैयावृत्यं यावानुपग्रहोऽन्योऽपि संयमिनाम् ॥ ११२
'सम्यग्दर्शनादि गुणोंके नित्रि गृहत्यागी तपस्वोको बदले में किसी उपचार और उपकारकी अपेक्षा न रखकर जो धर्मके निमित्त यथाविभव - विधिद्रव्यादिकी अपनी शक्ति-सम्पत्ति अनुरूप दान देना है उसका नाम ' वैयावृत्य' है ।"
('केवल दान ही नहीं किन्तु ) गुणानुरागसे संयमियोंकी आपत्तियों को जो दूर करना है, उनके चरणों को दबाना है तथा और भी उनका जो कुछ उपग्रह है— उपकार, साहाय्य सहयोग अथवा उनके अनुकूल वर्तन हैवह सब भी ' वैयावृत्य' कहा जाता
व्याख्या - वहां जिनके प्रति दानादिके व्यवहारको 'वैयावृत्य' कहा गया है वे प्रधानतः सम्यग्दर्शनादि गुणोंके निधिस्वरूप वे सकलसंयमी, अगृही तपस्वी हैं जो विषयवासना तथा प्राशा तृष्णाके चक्कर में न फँसकर इन्द्रियविषयोंकी वांडा तकके वशवर्ती नहीं होते, चारम्भ तथा परिग्रहसे विरक्त रहते हैं और सदा ज्ञान-ध्यान एवं तपमें बीन रहा करते हैं, जैसा कि इसी शास्त्रकी १०वीं कारिकामें दिन तपस्वीके सबसे प्रकट है। और गौणतासे उनमें उन तपस्वियोंका भी समावेश है जो भले ही पूर्णतः गृहत्यागी न हों किन्तु गृहवाससे उदास रहते हों, भले ही भारम्भ - परिग्रहले पूरे विरक न हों किन्तु कृषि-वाणिज्य तथा मिलोंके संचालनादि जैसा कोई बढ़ा चारम्भ तथा ऐसे भारम्भोंमें नौकरीका कार्य न करते हों और प्रायः आवश्यकताकी पूर्ति जितना परिग्रह रखते हों। साथ ही, विषयोंमें आसक न होकर जो संयम के साथ सादा जीवन व्यतीत करते हुए ज्ञानकी अराधना, शुभभावोंकी साधना और निःस्वार्थ भाव से लोकहितकी दृष्टिको लिये हुए धार्मिक साहित्यकी रचनादिरूप तपश्चर्यामें दिनरात बीन रहते हों। इसीसे प्रभाचन्द्राचार्यने भी अपनी टीकामें 'संयमिन ' पदका अर्थ 'देश-सकत-यतीनां' करते हुए
'धर्मा' पद दानादिकमें धार्मिकदृष्टिका सूचक है और इस बातको बतलाता है कि दानादिकका जो कार्य जिस संयमीके प्रति किया जाय वह उसके धर्मकी रक्षार्थ तथा उसके द्वारा अपने धर्मकी रक्षार्थ होना चाहिये - केवल अपना कोई लौकिक प्रयोजन साधने अथवा उसकी सिद्धिकी प्रशासे नहीं । इसी तरह 'गुणानुरागात्' पद भी लौकिकदृष्टिका प्रतिषेधक है और इस बातको सूचित करता है कि वह दान तथा उपग्रह - उपकारादिका अन्य कार्य किसी लौकिक लाभादिकी दृष्टिको लक्ष्यमें लेकर अथवा किसीके दबाव या आदेशादिकी मजबूरीके वश होकर न होना चाहिये - वैसा होनेसे वह वैयावृत्यकी कोटिसे निकल जायगा । वैयावृत्यकी साधनाके लिये पात्रके गुणोंमें शुद्ध अनुरागका होना आवश्यक है। रहा 'अनपेक्षितोपचारोपक्रिय' नामका पद, जो कि दानके विशेषणरूपमें प्रयुक्त हुआ है, इस व्रतकी आत्मा पर और भी विशद प्रकाश डालता है और इस बातको स्पष्ट घोषित करता है कि इस वैयावृत्य व्रतके वती द्वारा दानादिके रूप में जो भी सेवाकार्य किया जाय उसके बदले में अपने किसी लौकिक उपकार या उपचारकी कोई अपेक्षा न रखनी चाहिये -- वैसी