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अनेकान्त
[वर्ष १५
विषधीपरसे 'पार्श्वनाथचरित' की रचना कराई है, वे का रचनाकाल सं० ११७९ कार्तिक शुक्ला अष्टमी बतलाया उस समय देहलीमें रहते थे और अग्रवालकुलम समुत्पन्न है जो ठीक नहीं है, क्योंकि पांडव पुगणका रचनाकाल हुए थे। इनकी माताका नाम 'वील्हा देवी और पिताका उसकी प्रशस्तिमें वि. सं. १४९७ दिया है। इन्होने अपना नाम 'बुध गोल्ह' था। कविने इसमे अधिक अपना परिचय हरिवंश पुगण" सं. १५०० में पूर्ण किया है। नही दिया। हां, इस अन्य प्रशस्तिमें इम ग्रन्थमे पूर्व रची उक्त प्रस्तावनामे यह भूल तो और भी अधिक खटकती जानेवाली अपनी कृति 'चन्द्रप्रभचरित' का उल्लेख अवश्य है और वह यह कि पृष्ठ २१ पर रूपचन्दका परिचय देते किया है। ऐसी स्थितिमें कायस्थजातिके श्रीधरका जो हुए उन्हें पांडे रूपचन्दजीमे भिन्न बतलाया गया है और लिखा है उल्लेख किया गया है वह अभ्रान्त नहीं है और उसके साथ कि इन्हें कविवर बनारसीदासने गुरुके समान माना है। परन्तु इन अग्रवाल श्रीधरका सम्बन्ध कमे मुघटित हो सकता यह पांडे रूपचन्दजीमे भिन्न कोई दूसरे व्यक्ति नही है। है ? दूसरे कवि श्रीधरको माथुर कुल और कायस्थ जानिका इनके उपदेगमे ही बनारमीदास और उनके तीन साथियों बतलाना तथा उनके पिता नारायण और मानाका नाम का-चन्द्रभान, उदयकरण, और थानमल्लका--वह रूपिणी प्रकट करना बिल्कुल ही निराधार और गलन है, एकान्त मिथ्याभिमनिवेश दूर हो गया था, उन्हे मदृष्टि क्योंकि उम भविष्यदत्त पचमी कथाके कर्ता श्रीधरने प्रशस्ति- प्राप्त हुई थी। इमीमे बनाग्मीदामने उनका गुरुरूपये में अपना कोई परिचय नहीं दिया है किन्तु उस कथा ग्रन्थको परिचय दिया है और नाटक समयमारके अन्नम 'चतुरभाव रचनामे प्रेरक महानुभावका परिचय ग्रन्थकाग्ने दिया है जो थिरता भए रूपचद परगास' जैसे वाक्योके द्वाग उनका स्मरण माथुरकुलीन नारायणके पुत्र मुपुट्ट साहूकी प्रेग्णामे ग्चा किया है । बनारमीदामने उक्त सद्वृष्टि प्राप्त करनेके बाद गया था। उनके ज्येष्ठ भ्राताका नाम वासुदेव था। उक्त ही म० १६९३ में नाटक समयमार बनाकर पूग किया है पार्श्वनाथचरित साहू नारायणकी धर्मपत्नी 'रूपिणी' के और स० १६९४ में पांडे रूपचन्दकी मृत्यु हो गई थी। नामांकित किया गया है अतएव कवि श्रीधरके सम्बन्धमे उन्हे जो आगरेका वासी बतलाया गया है, सो वे जो कल्पना की गई है वह बड़ी ही विचित्र जान पड़ती है। आगराके वासी भी नही थे; किन्तु बनारसमे दरियापुर यहां एक बात और नोट करनेलायक है और वह यह कि होते हुए वे आगरामें आए थे और उम समय आगरामें सुकमालचरितके रचयिताभी इन्हीं श्रीधरको बतला दिया 'तिहुना' साहके घरपर उन्होने डेरा किया था। परमार्थ है जो अभी प्रमाण सिद्ध नहीं है।
दोहा शनक, पदसग्रह, पंचमंगलपाठ, समवसरणपाट, ___ इमी वरह मंस्कृत भाषाके कवि ब्रह्मनेमिदत्तको नमिनाथरामो, आदि कितनी ही रचनाएं इन्हीकी रची अग्रवाल और गोयल गोत्री बतला दिया गया है जो भट्टारक हुई है। इन्होंने अपना समवसरणपाठ स० १६९२ में आगगमल्लिभूषणके शिष्य थे। ब्रह्मनेमिदत्तके अग्रवाल होनेकी में आनेसे पूर्व पूरा किया था। इनका विशेष परिचय अनेकान्न कल्पना उनके 'श्रीपालचरित' नामक ग्रन्थकी प्रशस्तिके वर्ष १० कि० २ से जानना चाहिए। अस्तु, इस प्रकारका पद्य नं. ३ से की गई है । वह सब कथन ब्रह्मनेमिदनके लिए नतीजा पाठकको भ्रममे डाल देता है। इस कारण इम न होकर महेन्द्रदत्तयतिके लिए किया गया है।
मम्बन्धमें विशेष जानकारी रखनकी जरूरत है। अपभ्रश भाषाके महाकवि अमरकीर्तिकी षट्कर्मो- हिन्दी भाषाके कवियोंका परिचय देते हुए पं. दौलतपदेशरत्नमालाका रचनाकाल सं० १२७४ बतलाया गया गमजीको, जो आनन्दरामके पुत्र और बमवाके निवासी है जो उक्त ग्रन्थकी प्रशस्तिमें दिये हुए ग्चना समय थे, उन्हें स० १८०० के पूर्व ही अपनी रचनाओका मं० १२४७ से भिन्न है।
रचयिता बतलाना किसी भूलका परिणाम जान पड़ता है। भट्टारक यशःकीतिके 'पाण्डवपुराण' और चंद्रप्रभ-चरित्र प० दौलतरामजीने वि० सं० १७७७में पुण्याव टीका, इन दोनों ग्रन्थोंका कर्ता एक बतला दिया है, वह गलत है। १७९८ में अध्यात्मवारह खड़ी, सं० १७९५ मे क्रियाकोष, पाण्डव पुराणके कर्ता भट्टारक यशःकीर्ति भट्टारक गुणकीर्ति- स. १८०८ में वसुनन्दिश्रावकाचारकी टव्वा टीका, स. के शिष्य तथा लघुभ्राता थे। चन्द्रप्रभचरितके कर्ता इनसे भिन्न १८२३ मे पद्मपुराण टीका,मं० १८२४ में आदि पुराण टीका पूर्ववर्ती यशः कीति है । साथ ही, यशःकीति के पाण्डव पुराण- सं० १८२७ में पं० टोडरमलजीके पुरुषार्थसिवधुपायकी