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आमेर भण्डारका प्रशस्तिसंग्रह
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की अधूरी टीकाको पूर्ण किया था और फिर सं० १८२९ में विद्वान पं. आशाधरजी हैं। क्योंकि ब्रह्मश्रुतसागरने पुन्नाट संघी जिनसेनाचार्यके हरिवंशपुराणकी' टीका पं० आशाधरके सहस्रनामकी टीका लिली है। जिन लिखी थी। इस समुल्लेख परसे स्पष्ट है कि पं० दौलतराम- सेनाचार्य के सहस्रनामपर नहीं। इसी तरह पृष्ठ ९७वें पर जीकी रचनाएं सं० १८०० से पूर्वकी कैसे मानी जा सकती 'क्रियाकलाप स्तुति' का कर्ता आचार्य समन्तभद्रको बतलाया है?-वे तो १९वीं शताब्दीके २९ वर्ष तक रची जाती रही गया है। जबकि टीकाकार प्रभाचन्द्रने स्वयं उस क्रियाकलापहै । अतः यह निष्कर्ष भूलसे खाली नही है।
ग्रन्थकी टीकामें प्राकृत भक्तिपाठके कर्ता कुन्दकुन्द और उक्त प्रशस्तिसंग्रहमें संस्कृत प्राकृत-अपभ्रंश भाषाकी संस्कृत भक्तिपाठके कर्ता पूज्यपाद (देवनन्दी)को बतलाया है। किन्हीं प्रशस्तियों से कुछ प्रशस्तियोका तो आदि भाग भी उक्त संग्रहमें प्रूफरीडिंगमे प्रेस आदिकी असावधानीसे दिया हुआ है किन्तु अधिकांश प्रशस्तियोका वह ऐतिहासिक रह जानेवाली सैकड़ो अशुद्धियोंको छोड़कर ग्रन्थमें कुछ ऐसी महत्वका आदि भाग नहीं दिया गया, जिनमें ग्रन्थकर्ताकी अशुद्धियां भी रह गई है जो बहुत खटकने योग्य है। उनमेंगुरु परम्परा, वंशपरम्परा, ग्रन्थरचनाओके उल्लेख, पूर्ववर्ती से पाठकोंकी जानकारीके लिए एक-दो प्रशस्तियोका कवियोंका स्मरण, स्थान और ग्रन्थ-निर्माणमें प्रेरक महानु- दिग्दर्शन नीचे कराया जाता है । उससे पाठक सहज ही में भावोंकी प्रेरणा आदिका उल्लेख सन्निविष्ट हैं। ऐसे महत्वपूर्ण उनकी अशुद्धियोंको ज्ञात कर सकेंगे। भट्टारक शुभचन्द्रके भाग छोड़ दिये गये है जिन्हें इस ग्रन्थमें अवश्य देना चाहिए 'करकण्डुचरित' नं. ५ को प्रशस्तिकी अशुद्धियोंको देखनेसे था। उनके न दिये जानेके कारण प्रशस्तियोंका वह अधूरापन पाठकका जी खेद खिन्न होने लगता है जैसा कि उसके खटकता है । अत: इस ग्रन्थमें प्रशस्तियोंके उस आदि भाग- रचनाकाल-सूचक निम्न एक पद्यसे स्पष्ट हैका संकलन आवश्यक था; क्योंकि प्रशस्तिसंग्रहका उपयोग ध्वण्टो विषमतः शातसमुदातवेकावसामषिका, अन्वेषक विद्वान रिफरेन्सबुकके रूपमें करते हैं। नीचे उन भाडे मासि समुद्रालयुगतियो संगेजवा पुरे । प्रशस्तियोंके नम्बर दिये जा रहे हैं जिनके ऐतिहासिक श्रीषल्छी वृषभेश्वरस्थ सवये को परिच विवं, आद्य-भाग संकलित होने चाहिए थे । सस्कृत प्रशस्तियोंमें रामः भी शुभवन सूरियतिपश्चंपाधिपत्याएवं ॥१॥ २१, ३९, ५२, ५७ और अपभ्रश प्रशस्तियों में १३, १४,
-प्रशस्तिसंग्रह १५, २०, ३०, ३४, ३८, ३९, ४१, ४३ ।
द्वयष्टे विक्रमतः शते सबइते चैकावशाम्बाधिके, इस प्रशस्तिसंग्रहके 'पृष्ठ १०८ पर पं० हरिषेणकी भाडे मासि समुन्वले समतियो सङ्ग पाडे पुरे। 'धर्म परीक्षा' की प्रशस्ति दी हुई है जिसमे उसका आद्यभाग श्रीमन्व यमेश्वरस्य' सबने चरित्र स्वि, भी दिया हुआ है उसमें छ: पंक्तियोके बाद निम्न दो पंक्तियां राज्ञः श्रीशुभवम्बसूरियतिपश्चंपाधिपस्याभूतं ॥५५ छुटी हुई है जिनका उसमें रहना अत्यन्त आवश्यक है और इसी तरह इस प्रशस्तिके पद्य नं. ४ में "प्रद्यनाथ' के वे इस प्रकार है:
स्थान पर 'पद्मनाभ', और 'चरितं सुचार' के स्थान पर जो सयंभू सो बेड पहाणउ, अहकम लोया-लोय-वियाणउ । 'महिमान मतंद्रो' तथा 'जीवस्य चरितं', के आगे एक चकार पुपफयंतणवि माणुस बुच्चाह, जो सरसइए कयाविण मुन्धा॥ और छूट गया है । पद्य नं ५ में 'बंदनामाः' के स्थानपर
इसके सिवाय निम्न प्रशस्तियोंमें जिनका रचनाकाल 'चंदनायाः', और 'वृत्तिः' की जगह 'वृत्ति' होना चाहिए। अंकित है, परन्तु वह परिचयमें नही दिया गया, जिसके देने- पद्य नं. ६ में 'वृद्धंच' के स्थानपर 'सबृद्ध' पाठ होना चाहिए। की वहां बड़ी आवश्यकता थी। उनके नम्बर इस प्रकार है- और 'मत्र चित्र के स्थान पर'मत्र शुद्ध पाठबना देना चाहिए। २१ पद्मपुराण सोमसेन, ३९ यशोधर चरित्र भ० शानकीर्ति पद्य नं. ७ में 'गुणोध के स्थान पर 'गुणोष', और 'सगर्वन' १, १७,१९,२१ (ए), २१ (बी), २२, २३, २९,४४। के स्थान पर 'समन', तथा 'श्री पार्श्वनाथव' पदके आगे ये नम्बर अपभ्रंश प्रशस्तियों के हैं।
एक रकार छूट गया है, उसे लगा देनेपर श्री पाश्र्वनामवर' प्रशस्तिसंग्रहके पृष्ठ १३ पर 'जिन सहस्रनाम सटीक- पाठ ठीक हो जाता है । पंजिगांच' की जगह 'पंजिकांच का मूलकर्ता आचार्य जिनसेन लिख दिया गया है । जबकि पाठ अच्छा है, 'सबकार' के स्थानपर 'सच्चकार और उस सहलनाम ग्रन्थके मूलका १३वी शताब्दीके प्रसिद्ध 'यतीचन्द्रः' के स्थानपर 'बतीनचन्द्र पाठ होना चाहिए।