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भनेकान्त
। वर्ष ११
पच नं. ८ में 'मापिष्टा' के स्थानपर 'मदीपिष्ट' "विषिश्च' और 'बरे' के स्थानपर 'वरेण्ये' पाठ बना लेना चाहिए। यह के स्थानपर 'विवेश्च' तथा 'जुस्त्रि' के स्थान पर 'चतुस्त्रि' संस्कृत प्रशस्तियोंका नमूना बतौर उदाहरणके बतलाया गया पाठ होना चाहिए। पच नं. ९ की प्रथम लाइनमें 'परं' के है। अपभ्रंश ग्रन्थोंकी प्रशस्तियोंमें भी बहुत अशुद्धियां रह गई आगे 'तक्क' वाक्य और होना चाहिए, जिसे पद्यके तीसरे है पर उन्हें लेख वृद्धिके भयसे यहा छोड़ा जाता है। चरणके साथ जोड़ दिया गया है। 'तत्त्वनिर्णय के आगे एक यहां हिन्दीकी एक प्रशस्तिका नमूना भी दिया जाता चकार और भी छूट गया है। १०वें पद्यमें 'वृत्तिर्सद्वार्था' के है जिससे पाठक हिन्दीकी प्रशस्तियोंकी अशुद्धियों को भी स्थान पर 'वृत्ति सर्वार्था'-पाठ होना आवश्यक है। ११ वें सहज ही जान सकेंगे। पचमें 'युग्मं पद अधिक जोड़ दिया है, वहां उसकी आव- इस प्रशस्तिसंग्रहके पु० २०५ पर 'आदित्यवार श्यकता नही है । तथा षट् पदाः के स्थानपर 'षट्वादा.' पाठ कथा' की प्रशस्ति दी हुई है जिसके कर्ता अज्ञात बतलाये होना जरूरी है । इस तरह यह सारी प्रशस्ति अशुद्धियोसे गये है । जबकि उस प्रशस्तिमें कर्ताका नाम 'भाऊकवि' भरी हुई है।
अंकित है। प्रशस्तिका अन्तिम पाठ भी अशुद्ध रूपमे छपा प्रशस्ति नं. ३४ में 'महावीर पुराण' लिखकर उसका है इसीसे उसपर सम्पादकजीने ध्यान नही दिया। कर्ता पं. आशापर बतलाया है। जबकि आशाधरजीका अग्रावाली ये कोयो बखान, कुवरि जननी तिहं मनोवान । इस नाम का कोई ग्रन्थ नहीं है। प्रशस्तिका मिलान करनेपर गरगाह गोत मलको पूत, भयो कविजन भगति सुंजत ।। ज्ञात हुआ कि यह विषष्ठिस्मृति पुराण है, जो माणिकचन्द्र
..प्रशस्ति संग्रह ग्रंथमालामें मुद्रित हो चुका है।
अगरवाल यह कियो बसाण, कुरिजननि तिवणगिरि ठानु। इसी तरह पेज नं. २१ की सोमसेनके पद्मपुराण प्रशस्ति- गर्गहिंगोत्र मनूको पूत, भाऊ कवि अणु भगति संबूत ॥ में भी अनेक खटकने योग्य अशुद्धियां रह गई हैं। उसके अपभ्रंश भाषाकी २३वों 'पार्श्वनाथ चरित' प्रशस्ति रचनाकाल सूचक पद्य को देखिए, उसमें क्या कुछ कम भूल को तो और भी विचित्र ढंगसे दिया गया है। उसके आदिहुई है। वह पर इस प्रकार है:
के ऐतिहासिक भागको तो दिया ही नही, किन्तु उसका के योग्श शत वर्षके
अन्तिम भाग भी पूरा नही दिया, किन्तु सिर्फ वे ही पंक्तिया पद पंचा तात्पुरते मासे श्रावणिकेतचा-प्रशस्ति संग्रह दी गई है जिनमें उस ग्रन्थका रचनाकाल अंकित है। उससे
विकमस्य गते शाके बोडशशतवर्षके ऊपरका भाग छोड़ दिया गया है। जिसमें अन्य रचनामें बद पंचाशसमायुस्ते माले भावणिके तथा प्रेरक नट्टलसाहूके कुटुम्बका परिचय निहित था और
दूसरे पद्यमें शुक्ल पक्षके स्थान पर 'शुकल पक्षे' यह जिसमें कविने नट्टलसाहूके लिए भगवान पार्श्वनाथसे सप्तमी का रूप होना चाहिए। और 'रामस्य' के स्थान पर निर्मल समाधिकी ही कामना की गई है। साथ ही इसकी रामचन्द्रस्य' पाठ होना आवश्यक है। ५वे पद्य में 'श्रुताः'के सन्धि वाक्यसूचक दो गाथाओको भी निग रूपमें दे दिया है स्थान पर 'स्तुताः' पाठ होना जरूरी है। इस प्रशस्तिमें पद्य जिससे उनके पद्यात्मक रूपकी हत्या हो गई है। इसी तरह संख्या सूचक निम्न पद्य भी छूटा हुआ है। जो इस प्रकार है:-- नयनन्दीके सकल विधि-विधान ग्रन्थकी संधि-सूचक दो
सह सप्तातं त्रीणि वर्तते भूवि विस्तरात्। गाथाएं भी रनिंगके रूपमें दे दी गई है जिसमे उनका वह सोमसेनमिदं बक्ये चिरंजीव चिर जीवितं ॥ पर रूप नष्ट हो गया है।
'जीवंधरचरित्र' की १२वीं प्रशस्तिके रचनाकाल भट्टारक श्रुतकीतिके 'हरिवंश पुराण' को ४ नं. की सषक पचका अर्थ भी ठीक नहीं लगाया, इसीसे उसके प्रशस्ति परिचयमें भी उसका रचनाकाल सं० १६०० रचनाकाल निश्चित करने में भूल हो गई है । सम्पादकजी- बतलाया गया है जबकि वह उस ग्रंयका रचनाकाल न होकर मे प्रन्यका रचनाकाल सं० १५९६ दिया है, जबकि सं० उस प्रतिको लिखवाकर दान देनेवाले सज्जनका वह लिपि १६०७ में से ४ घटानेपरसं०१६०३ उस ग्रन्थका रचनाकाल संवत् है। यहां सम्पादकने उस ग्रन्य प्रशस्तिका अन्तिम निश्चित होता है। १५९६ नहीं। इस पखमें 'शुभेतरे'के आगे भाग भी नहीं दिया जिसमें उसका रचनाकाल सं० १५५२ जोपी वह निरंपक है वहां नहीं देना चाहिए।
(शेष पुष्ठ २६८ पर)