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आमेर भण्डारका प्रशस्तिसंग्रह
(पं. परमानन्द जैन शास्त्री)
इस प्रशस्तिसंग्रहके सम्पादक हैं पं. कस्तूरचन्दजी भी तत्परता दिखायगी। पास्त्री, एम.ए. कापालीवाल, और प्रकाशक सेठ वधीचन्दजी सम्पादकजीने इन प्रशस्तियोके संकलन बाविमें गंगवाल, मंत्री, श्री महावीरजी अतिशय तीर्थक्षेत्र कमेटी काफी परिश्रम किया है, परन्तु जब प्रशस्तियोंका हम ऐतिजयपुर है। पृष्ठ संख्या ३३६ और मूल्य छ रुपया। हासिक दृष्टि से पर्यवेक्षण करते है तब उसमें जो स्थूल
प्रस्तुत ग्रन्थमें भट्टारक महेन्द्रकीर्ति आमेरके शास्त्र. त्रुटियां एवं भद्दी भूले पद-पदपर नज़र आती है, और उनसे भण्डारके कतिपय संस्कृत प्राकृत-अपभ्रंश और हिन्दी होनेवाले अनर्थकी ओर जब दृष्टि जाती है, तब चित्तमें बड़ा प्रन्योंकी १९६ प्रशस्तियां दी हुई है और साथमें उनकी ५० ही दुःख होता है। कहीं-कहीं पर तो उन मोटी-मोटी खटकने लेखक प्रशस्तियो भी अंकित है। उक्त प्रशस्तियां ग्रन्थमें योग्य स्थूल त्रुटियोके कारण पाठक भ्रममें पड़ जाता है और भाषाके क्रमसे तीन विभागोंमें विभाजित कर, दी हुई है। वस्तुस्थितिका कोई निर्णय नहीं कर पाता । वह कुछ समयके इससे अन्य तीन भागोमें बंट गया है।
लिए किंकर्तव्यविमूढ़सा हो जाता है और फिर अन्य साधन ___अन्वेषणके क्षेत्रमं प्रशस्तियां कितनी उपयोगी है और सामग्रीकेअभावमेंवस्तुतत्त्वकायचा निर्णय करना उसे अत्यन्त उनसे इतिवृत्तके निर्णय करनेमें क्या कुछ सहायता मिल कठिन हो जाता है। अतः उक्त प्रशस्तिसंग्रहमें जो स्थूल सकती है, इसे बतलानेकी आवश्यकता नही, अन्वेषक त्रुटियां रह गई है उनका परिमार्जन किये बिना कोई भी विद्वान ग्रन्थकार और लेखक प्रशस्तियोंकी महत्तासे अपरि- अन्वेषक विद्वान उससे यथेष्ट लाभ उठाने में समर्थ नही हो चित भी नही है। भारतीय जनवाङ्मयमें इतिवृत्तिकी सकता है। अतः उनका परिमार्जन एवं संशोधन होना अत्यन्त साधक बहुतसी सामग्री लुप्तप्राय हो गई है जो कुछ अव आवश्यक है। शिष्ट है उसमेसे कुछ खण्डहरो, और भूगर्भमें दबी पड़ी है। इस ग्रन्थको सम्पादकीय प्रस्तावना २२ पेजकी है फिर भी, बहुत कुछ सामग्री प्रशस्तियो, मूर्तियों, ताम्रपत्री, जिसमें भाषाओंका परिचय कराने हुए ९८ वे ग्रंथकार पाषाणग्दण्डो, चित्रों तथा मूर्तिलेखोम अकित उपलब्ध कवियोंका मक्षिप्त परिचय भी दिया हुआ है। यद्यपि उसमें होती है। यदि वह सब संकलित होकर प्रकाशमे लाई जा कितने ही कवियोंका परिचय नही दिया गया; पर जिनका सके तो उसमे जैन इतिवृत्तोंके सिलमिलेवार लिखने में बहुन परिचय दिया गया है उसमें भी पूरी सावधानी नहीं बर्ती कुछ सहायता मिल सकती है। प्रस्तुत ग्रन्थ इमी सद्उद्देश्यको गई, ऐमा जान पड़ता है। क्योंकि उस परिचयमें कुछ अन्यथा लेकर प्रकाशित किया गया है। महावीर तीर्थक्षेत्र कमेटी- ही नतीजा निकाला गया है जो उस ग्रन्थको प्रशस्तियोंपरमे ने इस दिशामें जो भी प्रयत्न प्रारम्भ किया है वह अवश्य उपलब्ध नहीं होता, जैसाकि निम्न उदाहरणोंसे स्पष्ट है:अभिनन्दनीय है। पर इतने से ही सन्तुष्टि मान लेना समुचित १. अपभ्रंश भाषाके कवि श्रीधरका परिचय देते हुए प्रतीत नही होता। राजपूतानेमें पुरातन अवशेषोकी कमी उन्हें कायस्थ जाति और माथुर कुलका बतलाया है और नही है। शास्त्रभंडार भी वहां अधिक मात्रामें पाये जाते उनके पिताका नाम नारायण और माताका नाम रूपिणी है। यदि कमेटी ४-५ योग्य विद्वानोंकी नियुक्ति कर उस दिया है तथा उसका सम्बन्ध सं० १९८९ में रचे जानेवाले कार्यमें प्रगति करना चाहे तो मूर्ति लेग्वों और शास्त्रभंडारा- पार्श्वनाथचरितके कर्ता विबुध श्रीधरके माथ जोड़ दिया की सूचीका कार्य आसानीसे थोड़े समयमे मम्पन्न किया है, जो देहलीके राजा अंगपाल तृतीयके शामनकालमें वहांजा सकता है। पर इस दिशामें बहुत ही मन्दगतिसे कार्य के राजश्रेष्ठी नट्टलसाहूकी प्रेरणासे रचा गया था। किया जा रहा है। आशा है कमेटी इम विषयमें अपनी और परन्तु सम्पादकजी यह भूल गए कि नट्टलसाहूने जिस