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________________ विरोध और सामंजस्य किरण जन्य ] करना असम्भव है, अतएव, म्वायतः स्त्रियों में मुक्तिकी योग्यताका भी निषेध करना पड़ा । २६५ पूज्यपाद के उपयुक] [भावस्वी और ग्रम्यस्त्री की व्यवस्था विचारणीय है। मुक्तिकी प्राप्ति कर्म सिद्धान्यकी इस व्यवस्थाका परिणाम यह हुआ कि जिन भागम- व्यवस्थानुसार मानी गई है। कर्मसिद्धान्तमें शरीर निर्मा में पुरुष और स्त्री दोनों में आध्यात्मिक योग्यताका पूर्व के को नियम पाये जाते हैं उनमें उक प्रकारले भावस्वी विकास स्वीकार किया गया था ने इस सम्प्रदाय अमाऔर इम्यरवीका भेद निर्माण होना सम्भव नहीं है। हो गये। सुजान पड़ता है कि दिगम्बर सम्प्रद्यपाद के पश्चात् सकलंकदेव x और स्वामी--- ने भी उमेद के समर्थनका प्रयत्न किया है, किन्तु उनके प्रयत्नसे व्यवस्थाकी अांतरिक कचाही प्रकट बीरसेन न्य होती है । जैन संपके भीतरकी के इस चिष्ठ परिचय स्पष्ट है कि प्रायोंमें स्त्रीची गुरुस्थानों तथा मुक्तिका विधान पाया माता है। किन्तु इस व्यवस्थाका संयमरे लिये माग्न्य की अनिवार्यताका विरोध पाया जाता है, क्योंकि स्त्रियोंके लिये मायका कहीं उपदेश नहीं है। इस विशेषका परिहार करने के लिये अनेक प्रयत्न किये गये जिनमें अन्तिम प्रयत्न देवनन्दि पूज्यपाद का था। उनके भावस्त्री धीर अम्यस्त्री मेदके द्वारा गत लगभग पन्द्रह शताब्दियों तक दिगम्बर सम्मदाय में एकता बनी रही । किन्तु कर्मसिद्धान्तको व्यवस्थाओंकी कसोटीपर परीक्षा करनेसे पूज्यपाद कृत उमेद सिद्ध नहीं होता क्योंकि सिद्धान्तानुसार जीवकी नामक प्रवृतियों द्वारा ही उसकी द्रव्यात्मक शरीर रचना होती है, जिसके फलस्वरूप स्त्रीवेदोदयी जीवके पुरुष शरीरकी रचना असम्भव है । इस परीक्षाका तात्पर्य यह निकलता है कि या तो स्त्रियोंमें मुक्तिकी योग्यता स्वीकार की जाय, या फिर परम्परा गत कर्म सिद्धान्त की व्यवस्थाएं अस्वीकार कर दी जय । इस परिस्थिति बचवा अन्य कोई उपाय नहीं अंग ग्रन्थोंका सर्वथा लोप माने जानेका यह भी एक कारण है। यही नहीं, किन्तु स्वयं जिनकल्पियों द्वारा निर्मित पट्ागम जैसे शास्त्रभी कुन्दकुन्दाचार्य मूलसंघमें अमान्य सिद्ध हुए । इस विरोधका सामय अबकी बार प्राचार्य देव नन्दि ने किया और संभवतः उनके इसी महान् कार्यके लिए वे 'पूज्यवाद' को सन्मान्य उपाधिमे भूषित किये गये । वे इतिहास में पूज्यपाद नामी अधिक प्रसिद्ध हुए। । उन्होंने उमासिकृतसर्वार्थ सिद्धि' नामक टीमें भावस्थ और दम्यस्त्रीका मेद करके प्राचीन आगमो विदित मनुष्यनीके चौदों श्रागमो गुणस्थानों और कुन्दकुन्दाचार्य द्वारा उपदिष्ट स्त्रीमुक्तिनिषेध विरोधका परहार कर दिया। पूज्यपाद के इस सूत्रात्मक परिहारचा मथितार्थ प निकलता है कि एक पुरुष शरीरी मनुष्य भावमे स्त्री भी होता है, और यही वह 'भाव स्त्री' है जिसमें मुि की योग्यता स्वीकार की जा सकती है, क्योंकि यह वस्त्र परित्यागरूप संयम का पालन कर सकता है। किन्तु जिसकी अंग रचना स्त्रीरूप ई व 'द्रव्य स्त्री' न उत संयमका पाचनर सकती और न परिणामतः मुक्ति प्राप्त कर सकती। इस शोध के आधारपर पूज्यपाद जिनकपियोंके बीच विरोधको मिटाकर एकता स्थापित करनेमें सफल हुए अब जिनकल्प और परिपकी शाद और श्वेताम्बर सम्बदायोंके रूपमें से पृथक हो गई । दिगम्बर सम्प्रदाय में भावस्त्रीके मेदसे स्त्रीमुक्ति मानी जाने बगी और श्वेताम्बरोंमें बिना ऐसे किसी विपसे। सूत्रटीकापुन भाववेदमेव तथा १०-६ टीका 'त्रिभ्यो वा वेदेभ्यः सिद्धिर्भावतो न ब्रम्यतः । x तत्वार्थ राजवाधिक ८ ८४ पाम १ १ २ टीका * 'क्या घट खंडागम सूत्रकार और उनके टीकाकार वीरसेनाचार्यका अभिप्राय एकही है ?" a. fer. at 11, 1, 8. 14 x सिद्धान्त समीक्षा (हिन्दी ग्रन्थ रचाकर कार्यालय, बम्बई)
SR No.538011
Book TitleAnekant 1952 Book 11 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1952
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size29 MB
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