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________________ अनेकान्त [ वर्ष ११ कर्ता शिवार्यके सत्य अनुमान किया है।" इस ग्रन्थ सुनियोंके लिये भाग्यका नियम (उत्सर्ग) बतलाया गया है, और साथही यह अपवादभी बतलाया गया है कि 'महर्षिक'' और ''भी धारण कर सकते हैं। इस प्रकार स्वयं जिनकल्प के भीतर भी कुछ विकल्पका व्यवहार होने लगा । किन्तु इस विकरूपमें ही चुना भेदके बीज विद्यमान क्योंकि इसके कारण नाग्न्यका नियम न्यायतः स्खलित हो गया। यदि किसीभी कारण कोई विशेष व्यक्ति विमा भाग्यका पालन किये निर्भयताको पूर्णताको प्राप्त कहे जा सकते थे, तो उसी प्रकार अन्य सुनिभी क्यों न वस्त्र धारण करते हुए पूर्ण भ्रमण गिने जाय ? इस विषमता कारण नाम्यके नियमका पालन करनेमें स्वयं निकल्पके भीतर शिथिलता थाने लगी । २४] इसके पश्चाद हमें जिनकल्प अर्थात अन्तिम जिम महावीर द्वारा उपदिष्ट 'माय' और स्थविरकल्प अर्थात् प्राचीन चातुर्याम सम्बन्धी करप वस्त्र ग्रहण रूप आचारका प्रादुर्भाव हुआ दिखाई देता है। किन्तु यह समकोवा स्वभावतः ही स्थायी नहीं हो सकता था, क्योंकि जो अचेलकस्य व नाभ्यका कठिन व पालन करते थे चोर भी इसका पाचन नहीं कर सकने के कारण अचेल तपस्वियों द्वारा होन समझे जाते थे उन दोनोंके बीच समानताको भावनाको स्थिर बनाना संभव नहीं था। भगवान् महावीर के पश्चात्की जो पट्टापक्षियों उपम्य है उनके अनुसार यह सम्प्रदाय केवल योग पोड़ियों की सम्मिक्षित रह सका। इस सम्मिि सम्मायके नायक केसी' कहे गये है और वे क्रमशः श्रीमही हुए गौम सुधर्म और जम्मू उत्पश्चात् सम्झ दायका नायक विधि हो गया और हमें पट्टायजियोमें प्राचार्य परम्पराकी दो विभिन्न धारायें दिखाई देने बर्गी इनमें से एक भावार्य 'नन्दि' से प्रारम्भ होती है और दूसरी 'प्रम' से इन्दो शाखाओंने सम्बन्धमें हमें जो कुछ वृत्तान्त प्राप्त होता है उस परसे जाना जाता है कि इममेंसे प्रथम शाखा 'जिesदपी' अर्थात् मन मिग्रन्थोंकी थी और दूसरी 'स्थविर कल्पी' अर्थात् बरधारी श्रमयोंकी । किन्तु अभीतक दिगम्बर और श्वेताम्बर सम्प्रदायका सुखरूपमें प्रादुर्भाव नहीं हुआ था, क्योंकि इस समयके वृतान्तानुसार एक शाखाको छोड़कर दूसरी शाखा में प्रविष्ट होना कठिन नहीं था । स्थाविरकी बाकी अपेक्षा जिनकी शाखायें एक विशेष कठिनाई थी। नागम्य परोषहका सहन करना सरल नहीं था, विशेषतः उन भ्रमयों द्वारा जो धनी गार्हस्थ जीवन से आये थे, अथवा जिनके धन-प्रत्यंगमें कोई विशेष विकृति थी । और स्त्रियों तो नाम्म्यका पालन करहो नहीं सकर्ती । इन कारणोंसे जिनकल्पियोंकी संख्या स्थविर कल्पियोंकी अपेक्षा हीन रहती थी । इस कमीकी पूर्ति आर्य शिवभूतिने की, जिन्होंने वेसाम्बर स्थविराबली के अनुसार स्थविरश्पको त्यागकर जिनकल्प किया था था जिनका एकस्य मैंने खाना + षट्संडागम, भा० पृ० ६५ प्रस्तावना पृ० २१, प इस प्रकारको परिस्थिति में कुन्दकुन्दाचार्यने जिन कल्पका नायकत्व ग्रहण किया। उन्होंने उक्त समस्याका अन्तिम निपटारा करन के लिए अपना ध्यान अन्तिम तीर्थकर भगवान महावीर द्वारा निर्दिष्ट प्रावारपर दिया, जिसके अनुसार नायका प्राधान्य था । अतएव कुन्दकुन्दाचार्यने यह निर्णय किया कि नान्यका परिपालन संयमीके लिए अनिवार्य और निरपवाद नियम है, तथा को उसका पालन नहीं कर सकते उन्हें मुनि रहनेका कोई अधिकार नहीं। 1 अथ समस्या स्त्रियोंकी उत्पई सम्हें स्वपरिस्थागका उपदेश देना असम्भव था । अरुएव उन्हें सबस्त्र अवस्था रहने दिया गया, किन्तु उनका आध्यात्मिक विकास अर्थात् गुणस्थान भाविकाओं ऊंचा नहीं मान जा सका। इस प्रकार अब स्त्रियोंके लिए पूर्ण संयमका सर्वथा निषेध कर दिया गया। पस्के परिस्याग के बिना संयम हो नहीं सकता और संयम के बिना मुक्ति प्राप्त * शिवभूति और शिवाये नागपुर यूनी० जर्नल, हा० ६. पृ० ६२. * मुखाराधना ३-८४ जैन इतिहासका एक विद्युत अध्याय । (A Hidden land mark in the hist ory of grainism ) B. C. law valume par 11 P.57 x सूत्र पाहुड १०, १९, २०, २१, २७
SR No.538011
Book TitleAnekant 1952 Book 11 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1952
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size29 MB
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