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अनेकान्त
वर्ष ११
वाले अथवा टाइफाइडवाले बीमार आदमीके लिये विष मम्ता धर्मा. सामन्य-विशेष-गुग-पर्वाया यस्य सोऽनेकान्तः" है । मकान, किताब, कपड़ा, सभा, संघ देश आदि ये सब यों कहा गया है। दूसरी दृष्टियां वस्तुके एक-एक अंशका अनेकान्त ही तो हैं । अकेली ईटो या चूने-गारेका नाम मकान दर्शन अवश्य करा सकती है पर उस दर्शनसे दर्शकको नहीं है। उनके मिलापका नाम ही मकान है। एक-एक पन्ना यह भ्रम एवं एकान्त आग्रह हो जाता है कि वस्तु इतनी किताब नहीं है नाना पन्नोंके समूहका नाम किताब है। मात्र ही है और नहीं है। इसका फल यह होता है कि शेष एक-एक सूत कपड़ा नही कहलाता । ताने-बाने रूप अनेक धर्मो या अंशोंका तिरस्कार हो जानेके कारण वस्तुका पूर्ण सूतोंके संयोग को कपड़ा कहते है। एक व्यक्तिकः कोई सभा या एवं सत्य दर्शन नहीं हो पाता। स्याद्वाद-तीर्थके प्रभावक संघ नहीं कहता। उनके समुदायको ही समिति, सभा, संघ या आचार्य समन्तभद्र स्वामी अपने स्वयम्भूस्तोत्रमें इसी बातको दल आदि कहा जाता है । एक-एक व्यक्ति मिलकर जाति, निम्न प्रकार प्रकट करते हैं:और अनेक जातियां मिलकर देश बनते है। जो एक व्यक्ति य एव नित्य-णिकावयो नया मियोऽनपेक्षा स्वपर-प्रणाशिनः । है वह भी अनेक बना हुआ है। वह किसीका मित्र है, किसी- तएव तत्वं विमलस्य ते मने. परस्परेता स्वपरोपकारिण।। का पुत्र है, किसीका पिता है, किसीका पति या स्त्री है, 'यदि नित्यत्व, अनित्य व आदि परस्पर निरपेक्ष किसीका मामा या भांजा है, किसीका ताऊ या भतीजा है एक-एक ही धर्म वस्तुमें हों तो वे न स्वयं अपने अस्तित्त्वको आदि अनेक सम्बन्धोसे बंधा हुआ है। उसमें ये सम्बन्ध
रख सकते है और न अन्यके । यदि वे ही परस्पर सापेक्ष होंकाल्पनिक नही है, यथार्थ है । हाथ, पैर, आंखें, कान य सब अन्यका तिरस्कार न करें तो हे विमल जिन! वे अपना शरीरके अवयव ही तो है और उनका आधारभूत अवयवी भी अस्तित्त्व रखते है और अन्य धर्मोका भी । तात्पर्य यह शरीर है। इन अवयव-अवयवी स्वरूप वस्तुको ही हम सभी कि एकान्तदृष्टि तो स्वपरघातक है और अनेकान्तशरीरादि कहते व देखते है। कहनेका तात्पर्य यह है कि दृष्टि स्वपरोपकारक है।' यह सारा ही जगत् अनेकान्तस्वरूप है। इस अनेकान्त इसी आशयसे उन्होंने स्पष्टतया यह भी बतलाया है स्वरूपको कहना या मानना अनेकान्तवाद है।
कि वस्तुमें एकान्ततः नित्य.व और अनित्यत्व अपने अस्तिअनेकान्तस्व इपको शिका अनेकान्तदृष्टि और स्याद्वाद- त्वको क्यों नही रख सकते है ? वे कहते है कि 'सर्वथा नित्य
भगवान् महावीर और उनके पूर्ववर्ती अपमादि पदार्थ न तो उत्पन्न हो सकता है और न नाश हो सकता है, तीर्थकरोंने वस्तुको अनेकान्तस्वरूप साक्षात्कार करके क्योंकि उसमें किया और कारकको योजना सम्भव नही है। उसका उपदेश दिया और परस्पर विरोधी-अविरोधी अनन्त- इसी तरह सर्वथा अनित्य पदार्थ भी, जो अन्वयरहित होनेधर्मात्मक वस्तुको ठीक तरह समझने-समझानेके लिये वह से प्रायः असत्ररूप ही है, न उत्पन्न हो सकता है और न नष्ट दृष्टि भी प्रदान की जो विरोधादिके दूर करने में हो सकता है, क्योकि उसमें भी क्रिया और कारककी योजना एकदम सक्षम है। वह दृष्टि है स्याद्वाद, जिसे असम्भव है। इसी प्रकार सर्वथा असत्का उत्पाद और सत्का कथंचितवाद अथवा अपेक्षावाद भी कहते है। इस स्याद्वाद- नाश भी सम्भव नहीं है, क्योंकि असत्तो अन्वय-शून्य है और दृष्टिसे ही हम उस अनन्तधर्मा वस्तुको ठीक तरह जान सकते सत् व्यतिरेकशून्य है और इन दोनोके बिना कार्यकारणभाव है। कौन धर्म किस अपेक्षासे वस्तुमें निहित है इसे हम, जब बनता नही । 'अन्वयम्यतिरेक-समधिगम्यो हि कार्यकारणतक वस्तुको स्याद्वाद दृष्टिसे नही देखेंगे, नही जान सकते भाव.' यों सर्वसम्मत सिद्धान्त है। अतः वस्तुतत्त्व 'यह वही है। इसके सिवा और कोई दृष्टि वस्तुके अनेकान्तस्वरूपका है' इस प्रकारको प्रत्यभिज्ञा-प्रतीति होनेसे नित्य है और निर्दोष दर्शन नही करा सकती है। वस्तु जैसी है उसका वैसा 'यह बह नहीं है-अन्य है' इस प्रकारका ज्ञान होनेसे ही दर्शन करानेवाली दृष्टि अनेकान्तदृष्टि अथवा स्याद्वाद- अनित्य है और ये दोनों नित्यत्व तथा अनित्यत्व वस्तुमें दृष्टि ही हो सकती है। क्योंकि वस्तु स्वयं अनेकान्तस्वरूप विरुद्ध नहीं है, क्योंकि वह द्रव्यरूप अन्तरंग कारणकी है। इसीसे वस्तुके स्वरूप-विषयमें "अर्थोऽनेकात. । मने अपेक्षासे नित्य है और कालादि बहिरंग कारण तथा पर्यायरूप