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________________ किरण लोकका अद्वितीय गुरु बनेकान्तवाद - नैमित्तिक कार्यकी अपेक्षासे अनित्य है । यथा यही कहते हैं:न सपा नित्यमुदत्यपति नकियाकारकमत्र युक्तम् । एकान्त-धर्माभिनिवेश-मूला रागावयोऽहं कृतिजाजनानाम् । नेवाऽसतो जन्म सतो न नाशो दीपस्तम पुद्गलभावतोऽस्ति एकान्त-हानाच स यत्तदेव स्वाभाविकत्वाच्च समं मनस्ते ॥२४॥ ॥५॥ नित्यं तदेवमिति प्रतीतेनं नित्यमन्यत् प्रतिपत्ति सिडः। 'एकान्तके आग्रहसे एकान्तीको अहंकार हो जाता है न तल्विं बहिन्तरङ्गानिमित-नैमित्तिक-योगतस्ते ॥४॥ और उस अहंकारसे उसे राग, द्वेष, पक्ष आदि हो जाते हैं, आगे इसी ग्रन्थमें उन्होंने अरजिनके स्तवनमें और जिनसे वह वस्तुका ठीक दर्शन नही कर पाता। पर भी स्पष्टताके साथ अनेकान्त दृष्टिको सम्यक् और एकान्त- अनेकान्तीको एकान्तका आग्रह न होनेसे उसे न अहंकार दृष्टिको स्व-घातक कहा है: पैदा होता है और न उस अहकारसे रागादिकको उत्पन्न अनेकान्तात्मदृष्टिस्ते सती शम्यो विपर्ययः । होनेका अवसर मिलता है और उस हालतमें उसे उस ततः सर्व मुषोक्तं स्यात्तपयुक्त स्वघाततः ॥९८॥ अनन्त धर्मावस्तुका सम्यग्दर्शन होता है, क्योकि एकान्तका 'हे अर जिन ! आपकी अनेकान्तदृष्टि समीचीन है- आग्रह न करना-दूसरे धर्मोको भी उसमें स्वीकार करना आग्रह न करना दूसर धमाकामा निर्दोष है, किन्तु जो एकान्तदृष्टि है वह सदोष है। अतः सम्यग्दृष्टि आत्माका स्वभाव है और इस स्वभावके कारण एकान्तदृष्टिसे किया गया समस्त कथन मिय्या है, क्योंकि ही अनेकान्तीके मनमें पक्ष या क्षोभ पैदा नही होता-वह एकान्तदृष्टि बिना अनेकान्तदृष्टिके प्रतिष्ठित नहीं होती समताको धारण किये रहता है। और इसलिये वह अपनी ही घातक है। अनेकान्तदृष्टिको जो सबसे बड़ी विशेषता है वह है तात्पर्य यह कि जिस प्रकार समुद्रके सदभावमें ही सब एकान्तदृष्टियोंको अपनाना-उनका तिरस्कार उसकी अनन्त न्दुिओंकी सत्ता बनती है और उसके अभावमें नहीं करना-और इस तरह उनके अस्तित्वको स्थिर उन बिन्दुओंकी सत्ता नही बनकी उसी प्रकार अनेकान्तरूप रखना। आचार्य सिद्धसेनके शब्दोंमें हम इसे इस प्रकार कह वस्तुके सद्भावमें ही सर्व एकान्त दृष्टियां सिद्ध होती हैं सकते है.-- और उसके अभावमें एक भी दृष्टि अपने अस्तित्वको नहीं भई मिच्छासग-समूह-मइयास अमयसारस। रख पाती । आचार्य सिद्धसेन अपनी चौथी द्वात्रिशिकामें जिणवय गस्स भगाओ संविग्गनुहाहिगम्मस ॥ इसी बातको बहुत ही सुन्दर ढंगसे प्रतिपादन करते हैं:- 'ये अनेकान्तमय जिनवचन मिय्यादर्शनों (एकान्तों) उदयाविव सर्वसिन्धयः समुबीर्णास्वयि सर्वदृष्टयः। के समूह रूप है-इसमें समस्त मिय्यादृष्टियां (एकान्तमच तासु भवानुवीम्यते प्रा.भक्तासु सरित्स्विवोषिः॥ दृष्टिया) अपनी-अपनी अपेक्षासे विराजमान हैं, और अमत -(४-१५) सार या अमृतस्वादु है। वे संविग्न-रागद्वेषरहित तटस्थ "जिस प्रकार समस्त नदियां समुद्र में सम्मिलित हैं वृत्तिवाले जीवोंको सुखदायक एवं ज्ञानोत्पादक है। वे जगतके उसी तरह समस्त दृष्टियां अनेकान्त-समुद्र में मिली हैं। लिये भद्र हों-उनका कल्याण करें।' परन्तु उन एक-एकमें अनेकान्तका दर्शन नही होता । जैसे बन्ध, मोक्ष, आत्मा-परमात्मा, लोक-परलोक, पुण्यपृथक्-पृषक् नदियों में समुद्र नही दिखता।' पाप आदिकी सम्यक् व्यवस्था अनेकान्त मान्यतामें ही बनती अतः हम अपने स्वल्प ज्ञानसे अनन्तधर्मा वस्तुके एक- है-एकान्त मान्यतामें नहीं । इसीसे समन्तभद्र स्वामीको एक अंशको छूकर ही उसमें पूर्णताका अहंकार-'ऐसी ही देवागममें कहना पड़ा है कि:है' न करें, उसमें अन्य धर्मोके सद्भावको भी स्वीकार करें। कुशला कुशलं कर्म परलोकश्च न वित् । : यदि हम इस तरह पक्षाग्रह छोड़कर वस्तुका दर्शन करें तो एकान्त-ग्रह-रक्तेषु नाथ स्वपरवरिषु ॥ निश्चय ही हमें उसके अनेकान्तात्मक विराट् रूपका दर्शन 'नित्यत्वादि किसी भी एकान्तमें पुण्य-पाप, परलोक हो सकता है। समन्तभद्र स्वामी अपने युक्तम्यनुशासनमें आदि नहीं बनते है, क्योंकि एकान्तका अस्तित्त्व अनेकान्तके
SR No.538011
Book TitleAnekant 1952 Book 11 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1952
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size29 MB
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