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अनेकान्त
सद्भावमें ही बनता है और अनेकान्तके न माननेपर या अनित्यत्व आदिका ही प्रतिपादन करनेसे समस्त धर्मोंउनका वह एकान्त भी स्थिर नहीं रहता और इस तरह वे उस एक-एक धर्मके अविनाभावी शेष धर्मोसे शून्य हैं और अपने तथा दूसरेके अकल्याणकर्ता है।'
उनके अभावमें उनके अविनाभावी उस एक-एक धर्मसे इन्हीं सब बातोंसे आचार्य समन्तभद्रने भगवान् वीरके भी रहित है। अत: आपका ही यह अनेकान्तशासन-रूप शासनको, जो अनेकान्तसिद्धान्तकी भव्य एवं विशाल आधार- तीर्थ सर्व दुःखोंका अन्त करनेवाला है, किसी अन्यके द्वारा शिलापर निर्मित हुआ है और जिसकी बुनियादें अत्यन्त अन्त (नाश) न होने वाला है और सबका कल्याणकर्ता है।' मजबूत है, 'सर्वादयतीष-सबका कल्याण करने वाला अन्तमें हम अपने इस लेखको समाप्त करते हुए आचार्य तीर्थ' कहा है:
'अमृतचन्द्रके शब्दोंमें इस 'अनेकान्त' को, जिसे 'सर्वोदयसर्वान्तवत्तवगण-मुख्य-कल्प सन्ति-शून्यं च मियोऽनपेक्षम्। तीर्थ' कहकर उसका अचिन्त्य महात्म्य प्रकट किया गया सर्वाऽऽपदामन्तकर निरन्तं सवोदयं तीर्थमिदं तवैव ॥६॥ नमक करते है और मंगलकामना करते हैं कि
-युक्त्यनुशासन इसकी प्रकाशपूर्ण एवं आल्हादजनक शीतल छायामें आकर है वीर जिन ! आपका तीर्थ-शासन समस्त धर्मो
सुख-शान्ति एवं सद्वृष्टि प्राप्त करे। सामान्य-विशेष, द्रव्य-पर्याय, विधि-निषेध, एक-अनेक, नित्यत्व-अनित्यत्व आदिसे युक्त है और गौण तथा मुख्यकी
परमागमस्य बीजं निषि-जात्यन्ध-सिन्धुर-विधानम् । विवक्षाको लिये हुए है-एक धर्म मुख्य है तो दूसरा धर्म
सकल-नय-विलसितानां विरोधमयन नमाम्यनेन्तम् ॥ गौण है। किन्तु अन्य तीर्थ-शासन निरपेक्ष एक-एक नित्यत्व श्रीसमन्तभद्रविद्यालय, दिल्ली, ता० ३-३-५२
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बीरशमन्दिर सरसावा का पूर्वद्वार