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अनेकान्त
वर्ष ११
रह सकती । अनेक कारणोंसे, जिनके विस्तारमें जानेकी यहां आवश्यकता नहीं है, जैन जीवन-धारा व्यापक रूपसे मानवसमाजको अधिक समय तक परिप्लावित नहीं कर सकी । उसके अनुगामी स्वयं अनाचार और मिथ्याचारमें फंस गये। आज हमें फिर अहिंसाकी उस परम्परामें नई प्राण-शक्तिका संचार करना होगा 'गांधीजीने अपने जीवन का अर्घ्य देकर एकबार उसे देदीप्यमान कर दिया । किन्तु हमें निरन्तर साधनामय जीवनसे उस अग्निको प्रज्वलितकर अपनी प्राण-शक्तिका प्रमाण देना होगा। सत्य और अहिंसाके आदर्शको व्यवहारमें प्रतिष्ठित करनेके सहजमार्गको न स्वीकार कर यदि केवल वाक्य, तर्क, और प्रमाण चातुर्यका मार्ग ग्रहण किया जायगा, तो विश्व धर्मके महाकालके विधानमें जैनधर्मके लिये कोई आशा नहीं ।
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मजहब आकर इसकी जगह ले लेगा। इस तरह मानवजाति वर्तमान और भविष्य के बीचमें मौतकी तरह हंकाई जा रही है। यह धरती नाशमान है। जिस तरह इसका आरम्भ हुआ था उसी तरह इसका अन्त होगा । जन्म और मृत्यु हर चीजके साथ लगी हुई है। कालका प्रवाह नदीकी धारके सदृश बहता चला जा रहा है। यह प्रवाह हर समय किसी न-किसी नई वस्तुको सामने लाता रहता है ।"
सभी जीव-जन्तुओं यहांतक कि कीड़ेमकोड़ोंके प्रति भी वे अपरिसीम करुणापरायण थे। इस सम्बन्धका उनका . एक भजन है :
"वृथा पशुहिंसामें क्यों जीवन कलंकित करते हो ? बेचारे बनवासी पशुओंका क्यों निष्ठुर भावसे संहार करते हो ? हिंसा जाबसे बड़ा कुकर्म है । बलिके पशुओंको आहार न बनाओ। अंडे और मछलियां भी न खाओ। इन सब कुकर्मों से मैंने अपने हाथ धो डाले हैं। वास्तवमें आगे जाकर न बधिक रहेगा और न बध्य । काश कि बाल पकनेसे पहले मैने इन बातोंको समझ लिया होता ।"
इसी प्रकार जैन दर्शनने जलालुद्दीन रूमी एवं अन्य अनेक ईरानी सूफियोंके विचारोंको प्रभावित किया । अहिंसाका सिद्धान्त मानवजीवनका सर्वोच्च सिद्धान्त है । प्रत्येक प्रगतिशील आत्मा उससे आकृष्ट हुए बिना नहीं
"यदि जिन-मानितधर्मं अनेक मिथ्या आडम्बरों, आर्यहीन आचारों आदिको त्यागकर दया, मैत्री, उदारता, शुद्ध जीवन, आन्तरिक और बाह्य प्रकाश और प्रेमकी उदार तपस्या द्वारा अपने में अन्तर्निहित मृत्युहीन जीवनका परिचय दे सके तो सब अभियोग और आरोप स्वयं शान्त हो जायेंगे और इससे जैन स्वयं धन्य होंगे तथा समस्त मानवसभ्यताको भी वे धन्य करेगे ।"
( हुकुमचन्द अभिनन्दन ग्रन्यसे साभार )
महावीरस्वामी भक्तकी प्रार्थना
( पं० नाथूराम 'प्रेमी')
मुझे है स्वामी ! उस बलकी दरकार ।
(१)
(४)
बड़ी लड़ी हों अमित अड़चनें आड़ी अटल अपार ।
असफलताकी चोटोंसे नाह, दिलमें पड़े दरार ।
तो भी कभी निराश निगोड़ी, फटक न पावे द्वार ॥ मुझे० ॥ अधिकाधिक उत्साहित होऊं मानूं कभी न हार ॥ मुझे० ॥
(२)
सारा ही संसार करे यदि, दुर्व्यवहार प्रहार । हटेन तो भी सत्यमार्ग-गत, श्रद्धा किसी प्रकार ॥ मुझे० ॥ तो भी कभी निवद्यम हो नहीं, बैठूं जगदाधार ॥ मुझे० ॥
(६)
(३) धन-वैभवकी जिस आंधीसे, अस्थिर सब संसार । उससे भी न कभी डिग पावे, मन बन जाय पहार ॥ मुझे ०॥
(५)
बुल-दरिद्रता-कृत अति भ्रमसे, तन होवे बेकार ।
जिसके आगे तन-बल धन-बल, तृणवत् तुच्छ असार । महावीर जिन ! बही मनोबल, महामहिम सुखकार ॥ मुझे० ॥