________________
अहिंसक-परम्परा
. 'सियाहत नाम ए नासिर का लेखक लिखता है कि ये लोग अन्तिमबार स्वदेश लौटे तब उस समुदायके साथ इसलाम धर्मके कलन्दरी तबकेपर जैनधर्मका काफी प्रभाव सीरियाके सुविख्यात अन्ध-कवि अबुलअला अलमारीका पड़ा था। कलन्दरोंकी जमात परिव्राजकोंकी जमात थी। कोई परिचय हुआ। अबुलअलाका जन्म सन् ९७३ ईसवीमें कलन्दर दो रातसे अधिक एक घर में न रहता था। कलन्दर हुआ था और मृत्यु सन् १०५८ ईसवीमें। जर्मन विद्वान वान चार नियमोंका पालन करते थे-साधुता, शुद्धता, सत्यता, केमरने लिखा है कि अबुलअला सभी देशों और सभी युगोंमोर दरिद्रता । वे अहिंसा पर अखण्ड विश्वास रखते थे। के सर्वश्रेष्ठ सदाचार शास्त्रियोंमेंसे एक था।
एक बारका किस्सा है कि दो कलन्दर मुनि बगदादमें अबुलअला जब केवल चार वर्षके थे तभी चेचकके माकर ठहरे। उनके सामने एक शुतुरमुर्ग गृह-स्वामिनीका भयंकर प्रकोपसे अन्धे हो गये थे। किन्तु उनकी ज्ञान-तृष्णा हीरोंका एक बहुमूल्य हार निगल गया। सिवाय कलन्दरोंके इतनी अदम्य थी कि वे स्पेनसे मिस्र और मिस्रसे ईरान तक किसीने यह घटना देखी नहीं। हारकी खोज शुरू हुई। अनेकों स्थानमें गुरुकी तलाशमें ज्ञानार्थी बनकर घूमते रहे। शहर कोतवालको सूचना दी गई। उन्हें कलन्दरमुनियोपर अन्तमें बगदादमें जैन-दार्शनिकोंके साथ उनका परिपूर्ण सन्देह हुआ। कलन्दरमुनियोंसे प्रश्न किये गये । मुनियोंने ज्ञान-समागम हुआ। साधना द्वारा उन्होने परमयोगी पदको उस मूक पक्षीके साथ श्विासघात करना उचित नहीं समझा। प्राप्त किया। उनकी ईश्वरकी कल्पना इसलामकी कल्पनासे क्योंकि हारके लिये उस मूक पक्षीको मारकर उसका पेट नितान्त भिन्न थी । बहिश्तके लिये उनकी जरा भी ख्वाहिश फाड़ा जाता । सन्देहमें मुनियों को बेरहमीके साथ पीटा गया। नही थी। वे दुःखमय सत्ताको ही समस्त दुःखोंका मूल मानते वे लोह-लोहान हो गये किन्तु उन्होंने शुतुरमुर्गके प्राणोंकी थे। बगदादसे सीरिया लौटकर एक पर्वतकी कन्दरामें रक्षा की।
रहकर उन्होने अति कृच्छतपश्चरण किया। उसके बाद सालेहबिन अब्दुल कुलूस भी एक अहिंसावादी अपरि- उनका जीवन ही बदल गया। मद, मत्स्य, मांस, अण्डे एवं ग्रही परिव्राजक मुनि था, जिसे उसके क्रान्तिकारी विचारोंके दूध तकका उन्होंने परित्याग कर दिया। उनका जीवन कारण सन् ७८३ ईसवीमें सूली पर चढ़ा दिया गया। अकुल अहिसामय एवं मैत्रीपूर्ण बन गया। अतारिया, जरीर इब्न हज्म, हम्माद अजरद, यूनान बिन अबुलअलाका इस बातमें विश्वास नहीं था कि मुर्दे हारून, अली बिन खलील और बरशार अपने समयके प्रसिद्ध किसी दिन कब्रमेंसे निकलकर खड़े हो जायेंगे। बच्चा पैदा अहिसावादी निर्ग्रन्थी फकीर थे।
करनेके कार्यको वह पाप मानता था। अपने पृथक् अस्तित्वनवमी और दशमी शताब्दियोंमें अब्बासी खलीफाओंके को मिटा देनेको वह मनुष्य जीवनका वास्तविक लक्ष्य मानता दरबारमें भारतीय पंडितों और साधुओंको आदरके साथ था। वह आजीवन मनसा, वाचा, कर्मणा ब्रह्मचारी रहा। निमन्त्रित किया जाता था। इनमें बौद्ध और जैन साधु भी उसने अपने एक भजनमें लिखा है:रहते थे। इब्न अन नजीम लिखता है कि-"अरबोंके "हनीफ ठोकरे खा रहे है, ईसाई सब भटकहुए है, यहूदी शासनकालमें यहिया इन्न खालिद वरमकीने खलीफाके चक्कर में है, भागी कुराहपर बढ़े जा रहे है । हम नाशमान दरवार और भारतके साथ अत्यन्त गहरा सम्बन्ध स्थापित मनुष्योंमें दो ही खास तरहके व्यक्ति है-एक बुद्धिमान किया । उसने बड़े अध्यवसाय और आदरके साथ भारतसे शठ और दूसरे धार्मिक मूढ़।" हिन्दू, बौद्ध और जैन विद्वानोंको निमन्त्रित किया।"
अबुलअलाका एक दूसरा भजन है:सन् ९९८ ईसवीके लगभग भारतके बीस साधु "कोई वस्तु नित्य नही है। प्रत्येक वस्तु नाशमान है। सन्यासियोंने मिलकर पश्चिमी एशियाके देशोंकी यात्रा इसलाम भी नष्ट होनेवाला है। हजरत मूसा आये, उन्होंने की। इस दलके साथ चिकित्सकके रूपमें एक जैन सन्यासी भी अपने धर्मका उपदेश दिया और चलबसे। उनके बाद हजरत गये थे। एक बार स्वदेश लौटकर यह दल फिर पर्यटनके ईसा आये। फिर हजरत मोहम्मद आये और उन्होंने अपनी लिये निकल गया। २६ वर्षके बाद जब सन् १०२४ ईसवीमें पांच वक्तकी नमाज चलाई। कुछ दिनो बाद कोई दूसरा