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अनेकान्त
वर्ष ११
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उपर्युक्त वर्णनसे मालूम होगा कि ऋषि-मुनियोंकी तपश्चर्या- दिशामें बर्मा, श्याम, चीन आदि देशोंमें फैला और उसने रूपी अहिंसासे पार्श्व मुनिकी लोकोपकारी अहिंसाका . इन सब दिशाओंसे भारतको सम्भावित राजनैतिक विपत्तियों उद्गम हुआ।
से उन्मुक्त किया। यदि जैनधर्म भी इसी तरह भारतसे बाहर लोकोपकारी अहिंसाका सबसे प्रमुख प्रभाव हमें सर्व- पश्चिमी देशोंकी ओर फैला होता तो शायद भारत अनेक भूत दयाके रूप में दिखाई देता है। यों तो सिद्धांततः सर्वभूत राजनैतिक दुर्गतियोंसे बच गया होता।" दयाको सभी मानते है किन्तु प्राणिरक्षाके ऊपर जितना बल जैन परम्पराने दिया, जितनी लगनसे इसने उस विषयमें
इस समय जो ऐतिहासिक उल्लेख उपलब्ध है उनसे काम किया, उसका परिणाम समस्त ऐतिहासिक युगमें
यह स्पष्ट है कि ईसवी सन्की पहली शताब्दीमें और उसके
बादके १००० वर्षों तक जैनधर्म मध्यपूर्वके देशोंमें किसीयह रहा है कि जहां-जहां और जब-जब जैनोंका प्रभाव रहा वहां सर्वत्र आम जनता पर प्राणि-रक्षाका प्रबल संस्कार
न-किसी रूपमें यहूदी धर्म, ईसाई धर्म, और इसलामको पडा है। यहां तक कि भारतके अनेक भागोंमें अपनेको अजैन
प्रभावित करता रहा है । प्रसिद्ध जर्मन इतिहास लेखक वान कहनेवाले तथा जैन-विरोधी समझनेवाले साधारण लोग भी
केमरके अनुसार मध्यपूर्वमें प्रचलित 'समानिया' सम्प्रदाय
'श्रमण' शब्दका अपभ्रश है। इतिहासलेखक जी. एफ. मूर जीवमात्र की हिंसासे नफरत करने लगे है । अहिसाके इस सामान्य संस्कारके ही कारण अनेक वैष्णव आदि जैनेतर
लिखता है कि-"हजरत ईसाके जन्मकी शताब्दीसे पूर्व परम्पराओके आचार-विचार पुरातन वैदिक परम्परासे
ईराक, श्याम और फिलस्तीनमे जैन मुनि और बौद्ध भिक्षु सर्वथा भिन्न हो गये है। तपस्याके बारेमे भी ऐसा
सैकड़ोकी सख्यामें चारों ओर फैले हुए थे। पश्चिमी एशिया, ही हुआ है । त्यागीहो या गृहस्थी सभी जैन तपस्याके ऊपर
मिस्र, यूनान और इथियोपियाके पहाडों और जंगलोंमें
उन दिनो अगणित भारतीय साधु रहते थे जो अपने त्याग अधिकाधिक झुकते रहे है। सामान्य रूपसे साधारण जनता जैनोंकी तपस्याकी ओर आदरशील रही है। लोकमान्य तिलकने
और अपनी विद्याके लिये मशहूर थे । ये साधु वस्त्रो तकका ठीक ही कहा था कि गुजरात आदि प्रान्तोंमें जो
परित्याग किये हुए थे।" प्राणिरक्षा और निरामिष भोजनका आग्रह है वह जैन-परम्परा
इन साधुओके त्यागका प्रभाव यहूदी धर्मावलम्बियों का ही प्रभाव है।
पर विशेषरूपसे पड़ा। इन आदर्शोका पालन करनेवालोंकी, जैनधर्मका आदि और पवित्र स्थान मगध और पश्चिम यहदियोमें, एक खास जमात बन गई जो 'एम्सिनी' कहलाती बंगाल है। संभव है कि बंगालमें एक समय बौद्ध धर्मकी थी। इन लोगोने यहूदीधर्मके कर्मकाण्डोका पालन त्याग अपेक्षा जैन धर्मका विशेष प्रचार था । परन्तु क्रमश: जैन दिया। ये बस्तीसे दूर जगलों या पहाड़ोंपर कुटी बनाकर धर्मके लुप्त हो जानेपर बौद्ध धर्मने उसका स्थान ग्रहण किया। रहते थे। जैन मनियोकी तरह अहिंसाको अपना खास धर्म बंगालके पश्चिमी हिस्सेमें स्थित 'सराक' जाति 'श्रावको' मानते थे। मांस खानेसे उन्हे बेहद परहेज था। वे कठोर की पूर्व स्मृति कराती है। अब भी बहुतसे जैन-मन्दिरोके और संयमी जीवन व्यतीत करते थे। पैसा या धनको छूने ध्वंसावशेष, जैनमुर्तियां, शिलालेख, आदि जैन स्मृतिचिन्ह तकसे इनकार करते थे। रोगियों और दुर्बलोंकी सहायताको बंगालके भिन्न-भिन्न भागोमें पाये जाते है।
दिनचर्याका आवश्यक अंग मानते थे । प्रेम और सेवाको प्रोफेसर सिलवन लेवी लिखते है कि-"बौद्धधर्म पूजा-पाठसे बढकर मानते थे। पशुबलिका तीव्र विरोध जिस तरह आकुण्ठित भावसे भारतके बाहर और अन्दर करते थे । शारीरिक परिश्रमसे ही जीवन-यापन करते थे। प्रसारित हो सका, उस तरह जैनधर्म नही । दोनों धर्मोका अपरिग्रहके सिद्धान्तपर विश्वास करते थे। समस्त सम्पत्तिको उत्पत्ति-स्थान एक होते हुए भी यह परिणाम निकला कि समाजकी सम्पत्ति समझते थे। मिस्रमें इन्ही तपस्वियोंको बौद्धधर्म प्रतिष्ठित हुआ पूर्व भारतमें, और जैनधर्म पश्चिम 'थेरापूते' कहा जाता था। थेरापूते का अर्थ है 'मौनी अपरितथा दक्षिण भारतमें । बौद्धधर्म भारतके अतिरिक्त पूर्व प्रही।