________________
अहिंसक - परम्परा
( श्री विश्वम्भरनाथ पांडे, सम्पादक विश्ववाणी इलाहाबाद )
छान्दोग्य उपनिषद् में इस बातका उल्लेख मिलता है कि देवकीनन्दन कृष्णको घोर आंगिरसऋषिने आत्म-यज्ञकी शिक्षा दी । इस यज्ञकी दक्षिणा तपश्चर्या, दान, ऋजुभाव, अहिंसा तथा सत्यवचन थी ।
जनग्रथकारोका कहना है कि कृष्णके गुरु तीर्थंकर नेमिनाथ थे । प्रश्न उठता है कि क्या यह नेमिनाथ तथा घोर आंगिरस दोनों एक ही व्यक्ति के नाम थे ? कुछ भी हो, इससे एक बात निर्विवाद है कि भारतके मध्यभागपर वेदोंका प्रभाव पड़ने से पूर्व एक प्रकारका अहिंसा धर्मं प्रचलित था ।
स्थानांग सूत्रमें यह बात आती है कि भरत तथा ऐरावत प्रदेशों में प्रथम और अन्तिमको छोड़कर शेष २२ तीर्थंकर चातुर्मास धर्मका उपदेश इस प्रकार करते थे— " समस्त प्राणघातोंका त्याग', सब असत्यका त्याग, सब अदत्तादानका त्याग, सब बहिर्धा आदानोका त्याग।" इस धर्म रीतिमें हमें उस कालमे अहिसाकी स्पष्ट छाप दिखाई देती है ।
'मज्झिम निकाय' में चार प्रकारके तपोका आचरण करनेका वर्णन मिलता है— तपस्विता, रूक्षता, जुगुप्सा और प्रविविक्तता । नंगे रहना, अञ्जलिमें ही भिक्षान मांगकर खाना, बालतोड़ कर निकालना, कांटोंकी शय्या पर लेटना, इत्यादि देहदंडके प्रकारोको तपस्विता कहते थे। कई वर्ष की धूल वैसी ही शरीर पर पड़ी रहे, इसे रूक्षता कहते थे । पानीकी बूदतकपर भी दया करना इसको जुगुप्सा कहते थे । जुगुप्सा अर्थात् हिंसाका तिरस्कार । जगलमें अकेले रहनेको प्रविविक्तता कहते थे ।
तपश्चरणकी उपरोक्त विधिसे स्पष्ट है कि लोग अहिंसा तथा दयाको तपस्याका केन्द्र विन्दु मानते थे ।
अधिकतर पाश्चात्य पंडितोका यह मत है कि जैनोंके तेईसवें तीर्थंकर पारवं ऐतिहासिक व्यक्ति थे। यह
एक ऐतिहासिक तथ्य है कि चौबीसवें तीर्थंकर वर्धमानके १७८ वर्ष पूर्व पार्श्व तीर्थंकरका परिनिर्वाण हुआ ।
यह बात भी इतिहास सिद्ध है कि वर्धमान तीर्थंकर और गौतम बुद्ध समकालीन थे । बुद्धका जन्म वर्धमानके जन्म से कमसेकम १५ वर्ष बाद हुआ होगा। इसका अर्थ यह हुआ कि बुद्धके जन्म तथा पार्श्वके परिनिर्वाणमें १९३ वर्षका अन्तर था। निर्वाणके पूर्व लगभग ५० वर्ष तो पार्श्व तीर्थंकर उपदेश देते रहे होगे । इस प्रकार बुद्धके जन्मके लगभग २४३ वर्ष पूर्व पार्श्व मुनिने उपदेश देनेका कार्य प्रारम्भ किया होगा । निर्ग्रन्थ श्रमणोका सघ भी उन्होने स्थापित किया होगा ।
परीक्षित राजाके राज्यकालसे कुरुक्षेत्रमें वैदिक संस्कृतिका आगमन हुआ । उसके बाद जन्मेजय गद्दी पर आया। उसने कुरु देशमें महायज्ञ करके वैदिक धर्मका झडा फहराया। इसी समय काशी देशमे पार्श्व तीर्थकर एक नयी संस्कृतिकी नीव डाल रहे थे। पार्श्वका जन्म वाराणसी नगरमे अश्वसेन नामक राजाकी बामा नामक रानीसे हुआ । पार्श्वका धर्मं अहिंसा, सत्य, अस्तेय तथा अपरिग्रह इन चार यमका था। इतने प्राचीन कालमें अहिंसाको इतना सुसम्बद्धरूप देनेका यह पहला ही उदाहरण है ।
पार्श्व मुनिने एक बात और भी की। उन्होने अहिंसाको सत्य, अस्तेय और अपरिग्रह, इन तीन नियमोके साथ जकड़ दिया। इस कारण पहले जो अहिसा ऋषिमुनियोंके व्यक्तिगत आचरण तक ही सीमित थी और जनताके व्यवहारमे जिसका कोई स्थान न था वह अब इन नियमोंके कारण सामाजिक एवं व्यवहारिक हो गयी ।
पार्श्व तीर्थकरने तीसरी बात यह की कि अपने नवीन धर्मके प्रचारके लिये संघ बनाया। बौद्ध साहित्यसे हमें इस बात का पता लगता है कि बुद्धके समय जो संघ विद्यमान थे, उन सबों में जैन साधु साध्वियोंका संघ सबसे बड़ा था ।