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अनेकान्त
वर्ष ११
में छुत-अछूत और ऊंच-नीचका भेद-भाव वर्तते और प्रचारित आज संसार युद्धकी विभिषिकासे विक्षुब्ध और भयकरते हैं तो मुझे धर्मके नाममें इस तरहके अज्ञान और भीत है, आज तो खास तौरसे जैन सिद्धातोंके व्यापक प्रवंचना पर बड़ा ही दुःख होता है एक समय था जब जैन- प्रचारकी सख्त जरूरत है। समय भी पूर्ण रूपसे उसके समाजके अगुमा लोगोंने जैन-ग्रंथोंके छापनेका प्रबल विरोष उपयुक्त है। सारा पश्चिमी संसार सच्चे ज्ञानके लिये भीषण किया था, पर आज ग्रंथोंके लाखोंकी संख्यामें छप जानेके रूप से भूखा प्यासा है। यदि हम भगवान महावीरके सर्वोदकारण हर वर्ष उन्हें पढ़-पढ़कर हजारों लोग पंडित होते यात्मक सिद्धांतोंको आधुनिक प्रचारके तरीकों द्वारा जा रहे है। किंतु दुःख है कि ये ही पंडित लोग अधिकतर विस्तारित करें तो अपना भला भी करेंगे और संसारका भी उस 'असमतावाद' को सुदृढ़ बनाये रखना चाहते हैं जो संसारकी भलाई से ही अपना भला भी सचमुच हो सकता है। "समतावाद" के विरुद्ध, भगवान महावीरकी शिक्षाओंके हम भी संसार मे ही है-उससे बाहर नही है। सर्वोदय होने खिलाफ और सर्वोदयका हनन करने वाला है।
से ही हमारा या किसी भी व्यक्ति, समाज अथवा देशका हम जैनी जोर-जोरसे चिल्ला-चिल्लाकर अपने धर्म- उदय-अभ्युत्थान हो सकता है । अबतक हम भ्रम और लोभको 'सर्वोदयात्मक विश्व धर्म' होनेका दावा करते है पर में वह अपना परम प्रमुख कर्त्तव्य भूले रहे जो हमें सबसे क्या सचमुच हमारा व्यवहार इस दावेके अनुकूल है? पहले करना था। अभी भी समय है यदि जैनी चेत जायं धर्म और सिद्धांत तो ठीक है पर हमारा अर्थका अनर्थ और ऊंच-नीचके भेद-भाव छोड़कर जैनसिद्धांतको सारे करना ही सारे खुराफातोंकी जड़ है। उसमें भी हमारे अधिकांश संसारमें फैलावें। एक "विश्व-जैन-मिशन" नाम की संस्था पनिक वर्गने प्रचारकी सबसे बड़ी उपेक्षाकी है और पाप भी स्थापित हुई है, जिसने कुछ काम भी किया है,पर दुख है एवं मिथ्यात्वके बढ़ने-बढानेमें वे प्रमुख कारण रहे है। कि समाजके धनिक वर्गका सहयोग और सहायता अभी उसे एक पूंजीवादी सांसारिक व्यवस्था और समाजमें धन ही नहीं मिल सकी है । इस समय आवश्यकता है कि नये मन्दिर शक्ति है, वगैरधनके कुछ भी नही हो पाता-फिर उन्होंने और मूर्तियोकी सस्थापना और रथयात्रा इत्यादि कुछ अर्सेके सर्व जीवोका सच्चा कल्याण करनेवाले धर्मका यदि सच्चा लिये बन्द करके और उनमें लगने वाला सारा रुपया इकट्ठा प्रचार न किया तो उनका भी सच्चा कल्याण कैसे हो सकता करके लाखों करोड़ोंके रूप में इस सर्वोदय धर्मकी प्रभावना है? वे लोग थोड़े बहुत दानवान करके और कुछ मन्दिर की जाय। यही सच्चा तीर्थ है और इसीलिये भगवान महावीरबगैरह धनवा कर समझ लेते है कि उनसे बढ़कर धर्मात्मा
की वाणीको "सर्वोदय तीर्थ" कहा गया है। एव इसीसे कोई है ही नहीं, पर यह बात ठीक वैसी ही है जैसे धानमें से
सबका कल्याण होगा । ॐ शान्तिः ॐ । चावल निकार कर फेक दिया जाय और ऊपरके छिलके भूसी-को ही सुदृढ़तासे यत्न पूर्वक सुरक्षित रखा जाय । पटना, ता: ४-१-५२