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आचार्य श्रीसमन्तभद्रका पाटलिपुत्र
(श्रीदशरथ शर्मा एम०ए०, डी० लिट् .) आचार्य श्री समन्तभद्रने भारतके अनेक प्रान्तों और भी थे। अतः यह मानना ठीक नहीं जंचता कि वे नगरोंमें विहार कर जैनधर्मकी जयपताका फहराई और बिहारके पाटलिपुत्र तक गये । अनेक व्यक्तियोंको जैनधर्ममें दीक्षित किया । उनकी श्रीमहाजनकी ये तीनों ही युक्तिया निर्बल है। थिरुकुछ विजयोंका उल्लेख इस श्लोक में है:
पडरिपुलियुरका हम उनके कथनानुसार अर्थ करें तो भी पूर्व पाटलिपुत्रमण्यनगरे भेरी मया ताडिता उसका समानार्थक शब्द पाटलिपुत्र नहीं, बल्कि श्रीपाटलिपश्चान्मालवसिंधुटक्कविषये कांचीपुरे वैदिशे। व्याघ्रपुर बनता है। व्याघ्रपुर और पुत्र दो सर्वथा भिन्नार्थ प्राप्तोहं करहाटकं बहुभट विद्योत्कट संकटं शब्द हैं, श्रीमहाजनने शायद इस तथ्यको ध्यानमें नही
बादायों विचराम्यहं नरपते शार्दूलविक्रीडितम् ॥ रखा । जिस पाटलिपुत्रसे आचार्य समन्तभद्रने अपनी विजयों- श्रीमहाजन यह मानने में भी भूल करते है कि बिहारका प्रारम्भ किया उसे पंडित जुगलकिशोर मुख्तार आदि की राजधानी पाटलिपुत्रकी समृद्धि मौर्योके साथ ही जाती संमान्य विद्वान् प्रायः बिहार प्रान्तका 'पटना' समझते आये रही। दिव्यावदान अथसे सिद्ध है कि पुष्यमित्र पाटलिपुत्रसे है। किंतु लखनऊकी गत अ रियन्टल कान्फ्रेंसमें एक लेख ही राज्य-सचालन करता था। जिस जिनमूर्तिकी खारवेलने द्वारा श्री डी.जी. महाजनने इस मान्यताको असिद्ध करने- अपनी राजधानीमें स्थापनाकी वह उससे पूर्व पाटलिपुत्रके का प्रयत्न किया है' । आपके अनुसार आचार्य श्रीसमन्तभद्र- समृद्ध नगरमे ही वर्तमान थी। प्रभावकचरितमें पाटलिपुत्रके का पाटलिपुत्र वास्तवमें द्रविड़ देशका 'थिरुपडरीपुलिगुर' मुरुण्ड वंशका वर्णन है, जिससे प्रतीत होता है कि नामका नगर था। इसीका वर्तमान नाम कडेलोर विदेशियोंके हाथमे जानेपर पाटलिपुत्रके गौरवमें कमी न (Cuddailore) है। श्रीमहाजनकी युक्तियां संक्षिप्त हुई थी। चीनी इतिहाससे भी हमें ज्ञात है कि मुरुण्ड वंशी रूपमें निम्न लिखित है:
भारतके पूर्वी भागमे राज्य करता था। उसकी तत्कालीन (१) थिरुका 'श्री', पडरीका 'पाटलि' और 'पुलियुरका अर्थ समृद्धिका सुन्दर वर्णन भी हमें चीनियोंसे प्राप्त है।
'व्याघ्रपुर' होता है। इस लिये थिरुपडरीपुलियुर समद्रगुप्तकी राजधानी सभवतः पाटलिपुत्र थी । शब्द पाटलिपुत्रका बोधक है।
चन्द्रगुप्त विक्रमादित्यके राज्य कालमें जब फाह्यान भारतमें (२) आचार्य समन्तभद्रका समय ईसाकी दूसरी शताब्दी आया तो वह पाटलिपुत्रके ऐश्वर्य और धर्मानुरागसे दग रह
है। उस समय उत्तरी पाटलिपुत्र नगण्य हो चुका था। गया। उसने यह तीन साल तक संस्कृत भाषाका अध्ययन पुष्यमित्र, अग्निमित्र और खारवेल उसके गौरवको नष्ट किया और बौद्ध धर्मशास्त्रोंकी नकल की। नगरमें अनेक कर चुके थे। केवल दक्षिणी पाटलिपुत्र दूसरी शताब्दी- चिकित्सालय थे जिनमे सब प्राणियोकी मुफ्त चिकित्सा
में पूर्णतया समृद्ध और जैनधर्मका केन्द्र था। की जाती, भोजनवस्त्र आदि सब मुफ्त मिलते और रोगी (३) आचार्य दक्षिणी थे। वे भस्मक व्याधिसे पीडित ठीक होनेपर अपनी सुविधानुसार वहांसे चले जाते थे। 8. Summaries of Papers--All India
- चौदहवो शताब्दीमें विविधतीर्थकल्पके रचियिता Oriental Conference, 1951, 110-4.
२. देखें समुद्रगुप्तकी प्रयाग-प्रशस्ति ।