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________________ किरण १ आचार्य श्रीसमन्तभद्रका पाटलिपुत्र ४३ जिनप्रभ सूरि इसके महत्त्वसे अच्छी तरह परिचित थे। काचीका नाम हो सकता है, कितु उसके साथ लगा 'वैदिश यही उमास्वातिवाचकने तत्त्वार्थाधिगमसूत्रकी रचना की। शब्द शायद यह घोतित करता है कि यह कांचीपुर विदिशायही कल्कि और धर्मदत्त, जितशत्रु, मेघघोष आदिने विषयका कोई शहर था। इस प्रकार तमाम उत्तर देशका राज्य किया। यही भद्रबाहु, महागिरि, सुहस्ती, वास्वामी, विजयकर आचार्य दक्षिणकी तरफ मुडे और महाराष्ट्रप्रातिपदाचार्य आदिने विहार किया। यही स्थूलभद्र मुनिने के करहाटक विषयमें वहांके वादाथियोंको परास्त किया। वर्षारात्र चतुर्मास किया था। यहीं। आर्यरक्षित भी चौदह द्रविड देशके विषयमें श्लोकमें एक भी शब्द नहीं है। विद्याओंका अध्ययन कर दशपुर गये थे ।' और शायद उसकी आवश्यकता भी न थी। आचार्य द्रविड देशके सम्मान्य आचार्य थे। वहां उनका मत पहले ही मान्य ऐसे विख्यात नगरसे अपने दिग्विजयका आरम्भ था। आवश्यकता थी तो केवल इस बातकी कि वे दूरस्थ करना आचार्य समन्तभद्रके लिये स्वाभाविक था। भस्मक प्रान्तोंमें अपना विमल संदेश पहुँचाएँ और जैनधर्मविषयक व्याधि ही वास्तवमें यदि बाधक होती तो आचार्य टक्क, अनेक भ्रान्तियोंको दूर करे। मालव, सिंध आदि देशोमें कैसे विहार करते? वास्तवमें ४. दसवी शताब्दीके प्रसिद्ध कवि और साहित्य-मीमांइस लेखके आरम्भमे उद्धृत श्लोकसे तो यही ध्वनित संक राजशेखरने भी इसी (बिहारस्थ) पाटलिपुत्रहै कि समन्तभद्रकी दिग्विजयका आरम्भ माधकी। को शास्त्रकारोंका परीक्षास्थल माना है। उज्जयिनीराजधानी पाटलिपुत्रसे हुआ, न कि कड्डलूर आदि किसी में कवियोकी और पाटलिपुत्रमे शास्त्रोंके रचियिअन्य स्थानसे। पाटलिपुत्रमे विजयके बाद आचार्य मालव, ताओकी परीक्षा होती थी। उपवर्ष, वर्ष, पाणिनि, सिंधु, और टक्क विषयोमें गये। विजय दक्षिणसे आरम्भ पिंगल, व्याडि, वररुचि और पतञ्जलि यही परीक्षोहोती तो विहारक्रम कुछ अन्य ही होता। कांचीपुर दक्षिणी तीर्ण होकर प्रसिद्ध हुए थे। (देखे 'काव्यमीमांसा', ३. देखें विविधतीर्थकल्पमें पाटलिपुत्रकल्प । गायकवाडग्रंथमाला, पृष्ठ ५८) कम-इन्द्रियोको जीत जो, 'जिन' का परम उपासक जो। हेयाऽऽदेय-विवेक-युक्त जो, लोक-हितैषी जैनी सो ॥१॥ अनेकान्त-अनुयायी हो स्याद्वाद-नीतिसे वर्ते जो । सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चरण-मय, शान्ति-विधायि मुमुक्षुक जो। बाप-विरोध-निवारण-समरथ, समता-युत हो जैनी सो॥२॥ मन-वच-काय-प्रवृत्ति एक हो जिसकी निश्चय जैनी सो॥७॥ परम अहिंसक दया-दानमें तत्पर सत्य-परायण जो। आत्म-ज्ञानी सद्ध्यानी जो, सुप्रसन्न गुण-पूजक जो । घर शील-सन्तोष अवंचक, नही कृतघ्नी जैनी सो ॥३॥ नहिं हठग्राही शुची सदा संक्लेश-रहित-चित जैनी सो ॥८॥ नहिं आसक्त परिग्रहमें जो, ईर्षा-द्रोह न रखता हो । परिषह-उपसर्गोको जीत, धीर-शिरोमणि बनकर जो । न्याय-मार्गको कभी न तजता, सुख-दुखमे सम जैनी सो ॥४॥ नही प्रमादी सत्सकल्पों में महान् दृढ जैनी सो ॥९॥ लोभ-जयी निर्भय निशल्य जो, अहंकारसे रीता जो। जो अपने प्रतिकूल दूसरोके प्रति उसे न करता जो। सेवा-भावी गुण-ग्राही जो, विषय-विवजित जैनी सो ॥५॥ सर्वलोकका अग्रिम सेवक, प्रिय कहलाता जनी सो॥१०॥ राग-द्वेषके वशीभूत नहिं, दूर मोहसे रहता जो। पर-उपकृतिमें लीन हुआ भी स्वात्मा नहीं भुलाता जो। स्वात्म-ध्यानमे सावधान जो, रोष-रहित नित जैनी सो॥६॥ युग-धर्मी 'युग-वीर' प्रवर है, सच्चा धार्मिक जैनी सो॥१९॥ -युगवीर
SR No.538011
Book TitleAnekant 1952 Book 11 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1952
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size29 MB
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