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________________ सर्वोदयतीर्थ और उसके प्रति कर्त्तव्य ( बाबू उग्रसेन जैन M. A., LL. B. वकील ) संसारमें छोटेसे लेकर बड़े तक जितने भी प्राणी है वैर-विरोधका काम नही,. प्राणीमात्र अभय रहता है, सब ही सुखके इच्छुक है, दुःखको कोई नहीं चाहता। जहां व्यक्तिगत विचार-स्वातन्त्र्यकी महत्ता तथा परीक्षासब सुख और शान्तिके लिये इधर उधर भटकते फिरते है प्रधानताकी मुख्यता हो, विशुद्ध आत्मज्ञानकी प्राप्ति हो, कि कहीं ऐसा कोई आश्रय हाथ लग जावे कि जिसकी शरण- वही सच्चा शासन है और सर्वोदयतीर्थ है। यह कल्याणकारी में रहकर वे सुखको पा सकें, उनकी सब आपदाएं दूर हो जावें तीर्थ परमात्माके नाम रूप है, सम्यक् ज्ञान रूप निर्मल जलसे और पूर्णरूपसे उनकी शक्तियोंका उदय अर्थात् विकास भरा है, जिसमें दैदीप्यमान सम्यक्दर्शनरूप तरंगें है होवे । कुछ तो स्वयं परमात्मपदको प्राप्तकर संसार-परि- तथा अविनाशी अनन्तसुखके कारण जो शीतल है और भ्रमणसे सदैवके लिये छुटकारा पाने तकके इच्छुक है। सब प्रकारके पापोंका क्षय करनेवाला है । ऐसे जो शासन बिना भेदभावके जगतके समस्त प्राणियोके परमात्मस्वरूपतीर्थमें लीन होना ही प्राणीमात्रके लिये दुःखोंको दूर करके उनको वास्तविक सुख और शान्ति- श्रेयस्कर है । यह तीर्थ सम्यकदर्शन, सम्यक्ज्ञान, के स्थानमें पहुंचा देवे या यूं कहिये कि जिसके आश्रयसे सम्यकचारित्र (रत्नत्रय) रूप है । यह तीर्थ उत्तम क्षमादि एक संसारी प्राणी संसार-समुद्रसे पार हो मुक्ति प्राप्त कर दशलक्षणधर्मरूप है । जिसका आश्रय ग्रहण करनेसे अन्तरंग लेवे वही तीर्थ है। भगवान महावीरका शासन एक ऐसा तथा बहिरंगकी शुद्धि होती है, जैसा कि कहा भी है:ही तीर्थ है कि जिसका द्वार प्राणीमात्रके लिये खुला है, जो वीरप्रभुके परम कल्याणकारी सर्वोदयरूप शासनका सत्यं तीर्थ ममा तीर्थ तीर्थमिन्द्रियनिग्रहः । माश्रय ग्रहण करते है उनके मिथ्यादर्शनादि दूर होकर सर्वभूतदया तीर्थ सर्वमार्जवमेव ॥ सब दुःख और क्लेश मिट जाते है और वे इस धर्मके प्रसादसे बानं तीर्थ' बमस्तीर्थ सन्तोषस्तीर्यमुच्यते । अपना पूर्ण अभ्युदय सिद्ध कर सकते है। जैसा कि श्री ब्रह्मचर्य परं तीर्थ तीर्थ व प्रियवादिता ॥ समन्तभद्रस्वामीने अपने ग्रंथ युक्तधनुशासनमें प्रकट ज्ञानं ती तिस्तीर्थ पुण्यतं यमुदाहृतम् । किया है: तीर्थानामपितत्तीर्थ विशुद्धिर्मनसापरा॥ सर्वान्तवरावगृणमूख्यकल्प सन्तिशून्यं च मियोऽनपेक्षम् । वीर भगवानका यह तीर्थ पतितपावन है, समस्त सर्वापदामन्तकरं निरन्तं सर्वोदयं तीर्थमिदं तबंब ॥ आधि-व्याधियोंको क्षय करनेवाला है, परमशान्तिके लिये जिस तीर्थकी शरणमें जाकर आत्मस्वातन्त्र्यकी अमोघ उपाय है । विविधदुर्गुणोंको हटाकर अनेक सद्गुणोंको प्राप्ति होती है, जिसके द्वारा ऐहिक परिपूर्णता-अपरिपूर्णता- विकासमें लानेवाला है, सर्व प्रकारके दरिद्र, दुःख, क्लेश तथा का यथार्थ दर्शन होता है, जिस शासनमें रूढिवादको भयको हर कर मनुष्यको निर्भय तथा सुखी बनाता है और कोई स्थान नहीं, जो प्रगतिशील है, जिस शासनका आश्रय क्रमशः अभ्युदयके शिखरपर पहुँचा देता है। पाकर पीड़ित पतित और मार्गच्युत सर्वसाधारण जनताको आधुनिक सभ्यतामें अति व्यवसाय, अति व्यय अपना आत्मकल्याण करनेका यथायोग्य पूरा अवसर नवीन २ पदार्थोका संग्रह, अधिकाधिक नवीन २ वस्तुओंके मिलता है, जिस शासनके द्वारा अधर्म और अज्ञानरूप घोर प्राप्त करनेकी कामना, लक्ष्मीकी दासता और विषय-भोगोंअन्धकारका नाश हो ज्ञानसूर्यका प्रकाश होता है, जहां की लालसा साक्षात् दिखाई दे रही है। ऐसी दशामें स्वार्थ
SR No.538011
Book TitleAnekant 1952 Book 11 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1952
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size29 MB
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