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________________ किरण १ बीत रही हैं अनुपम घड़ियां ५ त्याग, दया, परोपकार, प्रेम, सतोष तथा स्थिरताको हो स्वतन्त्रतापूर्वक अपना आत्मकल्याण कर परमधामको ठिकाना कहां? आज संसार दुखसे पीड़ित है, दुनियांके प्राप्त हो चुके है । मनुष्यों और देवोंकी बात तो दरकिनार बड़े-बड़े राष्ट्र स्थायी शान्ति स्थापित करनेके लिये उत्सुक है, तिथंच तथा नारकी भी इस धर्मको धारण करके अपना अनेक राजनैतिक, सामाजिक तथा व्यक्तिगत जीवनको कल्याण करते रहे है, और करेंगे। ऐसे अनेक उदाहरण हमारे ऊँचा और सुखी बनानेकी जटिल समस्याएँ उनके सामने जैनशास्त्रोंमें मिलते है। जैन शासन सिखाता है कि घृणा है, उनको वे हल करना चाहते है, पर उन्हें हल करनेका करो तो पापसे करो, पापीसे नहीं, पापीका तो उद्धार ही उपाय सूझता नही । भगवान महावीर-द्वारा प्रतिपादित श्रेष्ठ है। महान पाप करनेवाला भी जैनधर्मको धारण कर अहिंसावाद, अनेकान्तवाद, साम्यवाद तथा कर्मवाद- त्रिलोकपूज्य हो सकता है। जैसा कि निम्न आदेशसे प्रकट है:द्वारा यह विश्वकी उलझनें सुलझाई जा सकती है। ये सिद्धांत महापापप्रकर्ताऽपि प्राणी श्रीजनधर्मतः । सिखाते है कि ससारमें निर्भय निर्वर रहकर शान्तिके साथ भवेत् लोक्य-संपूज्यो धर्माकि भोः परं शभम् ॥ आप जियो और दूसरोको जीने दो, रागद्वेष अहंकार तथा अब देखना यह है कि हमारा कर्तव्य इस सर्वोदयतीयंअन्यायपर विजय प्राप्त करो और अनुचित भेदभावको के प्रति क्या है ? हमारा कर्तव्य इस समय यही है कि त्यागकर सर्वतोमुग्वी विशाल दृष्टि प्राप्त करके नय-प्रमाण हम इस तीर्थसे स्वयं लाभ उठावें, दूसरोंको लाभ द्वारा एक दूसरेके दृष्टिकोणको समझकर सत्य-असत्यका उठाने दें, उदारताके साथ इसका प्रचार करें, इसके प्रभावनिर्णय करो, विरोधका परिहार करो तथा स्वावलम्बी को देश-देशान्तरोंमें व्याप्त करें-करावें, इसके क्षेत्रको बनकर अपना हित और उत्कर्ष-साधना तथा दूसरोंके संकुचित न रहने देकर उतना ही विशाल, विस्तृत और हितसाधनमें सहायता करना कराना सीखो। अपना उत्थान । सर्वोपयोगी बनावें जैसा कि वीर प्रभुके समयमें तथा बादको और अपना पतन अपने ही हाथमें है। स्वामी समन्तभद्रके समयमें था। यह तीर्थ सबके लिये हैयह वीरशासनरूपी सर्वोदयतीर्थ बड़ा विशाल है, बालक, बूढा, युवा, धनवान-निर्धन, बलवान,निर्बल, सहायसबके लिये खुला है, इस तीर्थकी शरणमे आकर तथा सहित-असहाय, रोगी-निरोगी, देशी-विदेशी, ब्राह्मण, क्षत्रिय, इसकी उपासना करके अनेक पातकियोने अपनेको शुद्ध और वैश्य, शूद्र कोई भी स्वतन्त्रतापूर्वक अपनी २ शक्ति तथा पवित्र बनाया है, कितने ही दीनोंको उन्नत बनाया है, योग्यतानुसार इस तीर्थका आश्रय लेकर अपना कल्याण कर कितने ही दुराचारी कुमार्गको छोड़कर सन्मार्गपर आरूढ़ सकता है। बीत रही हैं अनुपम पड़िया! (श्री इन्दु जैन) । फैसा रहा दुनियादारीमें, हाय हाय मै समय गमाया! खाने सोने और कमानेसे, क्षणभर अवकाश न पाया ! सुख की मृग-तृष्णामें दौड़ा, पकडी नश्वर-जगकी छाया! कनक-कामिनीके चक्करमें,कलह कपटकर अहित कमाया! खलके टूक विषय-सुख बदले, मैने फेंकी मुक्ता लड़ियाँ सुबह हुई और शाम आ गयी, बीत रही हैं अनुपम घड़ियाँ ! जगकी देखा देखी, भयसे, मन्दिर में कुछ समय लगाया, महाश्रेष्ठ कर्मोका फल है, सुर-दुर्लभ यह नरतन पाया, सत्य बात है लेकिन कुछ भी,नही हृदयमें तत्त्व समाया! सोचो जरा,किया क्या पाकर?जाति-राष्ट्रके काम न आया! कोरम पूरा किया सदा ही, निजको ठगा जगत भरमाया, ना तो दिव्य-साधना द्वारा, अपनेहीका पता लगाया, कभी न सोचा गहराईसे, महं कौन कहांसे आया? और न प्रभुके पाद-पद्यमें पड़ कर अतिशय-पुण्य कमाया! होकर सजग शीघ्र जोड़ो अब, विश्रंखल जीवनकी कड़ियाँ, कांच-खड-सम सुलभ न समझो,ये अमूल्य उपयोगी मणियाँ, हाथ नही आयेंगी ये फिर, बीत रही है अनुपम घड़ियाँ ! करना हो सो करले प्राणी, बीत रही है अनुपम घड़ियाँ!
SR No.538011
Book TitleAnekant 1952 Book 11 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1952
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size29 MB
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