________________
भनेकान्त
वर्ष ११
उदकोषन (श्री चन्द्रमान जन 'कमलेश') कह रहे आचार्य तू है सिद्ध-सम घव और पावन । चौंक मत! कुछ सोच तो जल उष्ण है जो जल रहे कर। किन्तु है शीतल स्वयंमें देख अंतर्द ष्टि देकर ॥
यदि न हो तो अग्नि हटते ही स्वयं क्यों शीत होता, शान्ति पाता देख लो वह निज स्वभावी शान्ति पाकर । उष्ण है तो भी बुझा दे अग्निको यह शक्ति उसमें,
जल सदृश ही तू सदा है, था, रहेगा तरन तारन ॥१॥ अष्ट कर्मोसे घिरा तू मानते ज्यो उष्ण है जल । किन्तु उसके शीत गुण-सम सिद्ध-सम तू भी विनिर्मल॥
कर्ममलके दूर होते ही प्रकट होते सुगुण जो, देख तेरा ही स्वधन बह मत उसे कहना करम-फल । ध्वंस करदे एक क्षणमें कर्मको वह शक्ति तुझमें,
मूल उसको तू भटकता व्यर्थ है क्यों भिक्षु वन-वन ॥२॥ पुण्य शुभ है औ' अशुभ है पाप, यह तो जानते तुम। और दोनों भेद आस्रवके इसे भी मानते तुम ॥
किन्तु आस्रव ही जगत है भूल क्या इसको गये जो, पुष्य ही को धर्म कहकर पूर्णतः उसमें गये रम। धर्म तो निज आत्मपरिणति औ' शुभाशुभ है विभावज,
बस शुभाशुभ-मल-रहित तू है अचल चैतन्य पावन ॥३॥ और देखो यह जिनालय हो रहा है शास्त्र-प्रवचन । औं' इधर है नृत्य करती एक वेश्या नित्य बनठन ।
देख सकते तुम युगल ही, किन्तु कब, जब छोडते घर,
आत्म-परिणति भूल त्योहोते शुभाशुभमे मगन मन। 'घर सदृश सुख है कही नहीं' यह कहावत भूल बैठे,
लाख चौरासी भटकते बस इसीसे हो विकल-मन ॥४॥ यदि तुझे विश्वास हो तो तू स्वरूप संभाल सकता। यदि न हो तो तू रहेगा सर्वदा संसार रुलता ॥
लक्ष्य जब जाना नही तो बोल छोड़ेगा कहां शर, लक्ष्य से ही भ्रष्ट होकर तो रहा अब तक भटकता। है समय अब भी संभालो भल बैठे हो स्वघन जो,
बस स्वयं होगा प्रकट निजरूप जो जग-दुख-नसावन ॥५॥ है अतः आदेश छोड़ो पापकी सारी क्रियायें। शुभ करो पर देखना वह भी नही तुमको लुभायें।
जिन-भवन औं' नृत्यमें ज्यों भूलते न कभी स्वघरको, भूलना मत आतमा त्यों जब करो वे शुभ क्रियायें। जानता है जो स्वधर वह पहुंच ही लेगा स्वधरको, वह स्वघर तेरा तुझीमें तू स्वयं चैतन्य पावन ।।६।।
कह रहे आचार्य तू है सिद्ध-सम घव और पावन ।।