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किरण १०]
गौ रक्षा, कृषि और वैश्य समाज
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लाते थे। कहा जाता है कि एक बार श्रीकृष्णने यह कहा नहीं सकता । अहिंसाके विषय में शास्त्रोंकी शिक्षा तो यह था कि-"जब कोई मुझको गोपाल कह कर पुकारता है है कि उसके सानिध्यमें हिंसक हिंसा, चोर चोरी, और तो मैं सोचने लगता है कि वह मुझे जानता है-पहि- जुलमगार जुल्म छोड़ेगा।" चानता है।"
खेतीका काम आजकल प्रायः शुद्ध, कुछ ब्राह्मण और ___ महात्मा गांधीने खेती और अहिंसाके विषयमें जैन- कुछ क्षत्रिय ही कर रहे है, वैश्य तो नाम मात्र । खेतीका सिद्धान्तसे मेल खाता हुआ अच्छा विवेचन किया है। प्रसिद्ध औजार 'हल' जिसके चलानेमें बैलोंकी जरूरत महारमाजीने उसमें खेती-विरोधी जैन विद्वानोंके द्वारा पड़ती है उसकी जगह अब यान्त्रिक हलोंके प्रचार करनेफैलाये गये भ्रमों का पूर्ण तौर पर निराकरण कर दिया है। की बातें सोची जा रही है । सोचने वाले कौन ? व्यापारी म. गांधी लिखते हैं कि
वैश्य लोग ? शर्मकी बात है इस तरह हम गोवंशकी "जिस खेतीके बिना मनुष्य जीवित ही नहीं रह
जरूरत कम कर रहे हैं, उसे बेजरूरतकी चीन बना सकता, वह खेती अहिंसा धर्म-पालन करनेवालेको, उसीपर जीवित रहते हुए भी त्याग ही देना चाहिये-ऐसी स्थिति
शासकों की नियतमें भी फर्क पड़ रहा है। उन्होंने अतिशय पराधीनताकी और करुणाजनक प्रतीत होती है।
गोवंशके चरनेके स्थान मंकुचित कर दिये हैं, और ऊपरखेती करने वाले असंख्य मनुष्य अहिंसा धर्मसे विमुख ।
से भारी टैक्स और लगा दिये हैं फल यह हुआ कि अब रहें, और न करने वाले मुट्ठी भर मनुष्य ही अहिंसा धर्म
गांवके गरीब कृषक लोगोंके पास जो गोवंश था उसे सिद्ध कर सकें, ऐसी स्थिति अहिंसा परमधर्मको शोभा
पालने में वे असमर्थ हो गये हैं। अतएव वे बेचारे शहरों देने वाली अथवा उसे सिद्ध करने वाली नहीं मालूम
में पाकर गोवंश बेचने लगे है । लेने वाले कौन ? कसाई होती । प्रतीत तो यह होता है कि सुज्ञ मनुप्य जब तक
लोग ? गोवंश घटता जा रहा है. एक परिणाम तो बड़ा खेतीका सर्वव्यापक उद्योग न करें तब तक वे नाममात्रके
ही भयंकर हुया है। वह है खेतोंको खाद न मिलनेसे ही सुज्ञ हैं। वे अहिंसाकी शक्तिका नाम निकालने में अस- व अप
वे अपनी उपजाऊ शक्ति खो बैठे हैं। मर्थ हैं। खेती जैसे व्यापक उद्योगमे लगे हुए असंख्य अगर हम लम्बा पुराण-काल नहीं, सिर्फ श्री महावीर भनुष्योंको धर्मकी राह पर लगानेक वे लायक नहीं है। और बुद्ध तक का ही इतिहास देखें तो यदि हम सहृदय यदि यह बात सचमुचमें सिद्धान्तमें गिने जाने वाली वस्तु होंगे तो रो पडेंगे । उस समय भारतमें गोवंश अरबोंकी हो तो इस विषयमें अहिंसाके उपासकका कर्तव्य है कि वह संख्यामें था। ऐसे-ऐसे वैश्य सेठ थे जो लाखों गोवंशका बार-बार विचार करे । खेतीके दृष्टान्तको जरा विस्तारसे पालन करते थे । एक सेठने तो अस्सी हजार गोगंश विचार करें तो हास्यजनक परिणाम आता है। सांपको लड़कीको दहेज में दिया था। और आज ? आज तो मारे बिना, चोरको सजा दिये बिना, और अपनी रक्षामें सारे भारतमें करीब आठ करोड गोवंश होगा। और रहे हुए बालक-बालाओंका जुल्मी मनुष्योंसे रक्षण किये
पालक तो कोई हजार पाँच सौ गायें रखने वाले सेठ गोवों बिना चल नहीं सकता हो-अनिवार्य हो तो क्या उपयुक्त
में मिलें तो मिलें अन्यथा शहरों में तो करोड़पतिके यहां सिद्धान्तानुसार यह काम दसरोंसे करवाना चाहिये. और भले ही दस बीस गायें नजर आयेंगी। इम अहिंसा धर्मका अनुपालन करना चाहिये १-यह अब भी समय है, कोई पहाड़ नही उठाना पड़ेगा। धर्म नहीं है अधर्म है। अहिंसा नहीं हिंसा है। ज्ञान नहीं सिर्फ मनोवृत्ति-दृष्टिबिंदु-पलट डालनेकी जरूरत है। मोह है। जो सापकी, चोरकी, जुल्मगारकी, प्रत्यक्ष भेट न नकली धन चांदी सोनेकी तरफसे मुंह मोड़ कर असली कर सके तब तक वह भय मुक्त होनेका नहीं, और जबतक धन गोवंशके तरफ मुंह फेरलें । यांत्रिक कारखानोंको भय मुक्त न हो तब तक अहिंसा धर्मका पालन वन्ध्या बन्द करके उसमें लगे हुए लोगोंको गोपालन और खेतीपुत्रके अस्तित्व जैसा ही रहेगा । और अहिंसाधर्मका जो के काममें लगावें । गृहोद्योगको उत्तेजन दें। खेती और एक महान परिणाम पाना चाहिये वह तो कभी था ही दूसरे भार बहन करनेके काममें बैलोंके उपयोग करने