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अनेकान्त
[किरण १० यदि हिन्दू मुसलमानोंकी देखा-देखी गो मांस खाना 'तिम्ल में बू आये क्या, माँ-बापके अतवार की। सीखते तो इतने दिनमें हिन्दु नामका लोप होगया होता, दूध तो डिब्बेका है, तालीम है सरकारकी । (अकबर) या हिन्दू बदीही दुर्दशामें होते । हिन्दुओंके अहिंसा धर्मने यहां यह कहना अप्रासंगिक न होगा कि महिंसा ही हिन्दुओंकी रक्षाकी है।"
धर्मके हिमायती किंतु जीवन-रहस्यसे अनजान कतिपय बात बिलकुल ठीक है। यद्यपि आज हम गो मांस जैन विद्वानोंने अपने उपदेशोंके द्वारा जैन वैश्यांका कृषि नहीं खाते हैं, फिर भी गोवंशके प्रति हमारा वैश्योंका जो और गोपालन कर्मसे उदासीम करनेका प्रयत्न किया कर्तव्य है उसका पालन नहीं करनेसे आज हम और गोवंश यद्यपि पूर्वके जैन विद्वानोंका ऐसा मत नहीं रहा है। दुर्दशामें है। वैश्यका बेटा आज जितना सस्ता है वैसा जैसाकि जैन शास्त्रोंके निम्न वाक्योंसे प्रकट हैदूसरा कोई नहीं। और गोवंश तो आज लाग्योंकी संख्यामें "श्रध्नन्नपि भवेत्पापी, निश्नन्नपि न पापभ.क । प्रतिवर्ष जीवित करल किया जाता है। जीवित कत्ल होनेका अभिध्यान-विशेषेण, यथा धीवर-कर्पकौ ॥" पाप उन धनियोंके सिर पर है जिन्हें काफ-खेएर गोवत्स
(यश. चम्पू) चमड़े का सामान चाहिये । अन्यथा जीवित गोवंश महंगा "आरम्भेऽपि सदा हिंसा, सुधीः सांकल्पिकी त्यजेत् । पड़नेके कारण कभी कल नहीं होता।
धनतोऽपि कर्षकादुःच्चै, पापोऽनन्नऽपि धीवरः॥" __ हमारे पूर्व पितामहोंने जिस समय वर्ण (वृत्तिक)
(सागर ध० २-८२) व्यवस्था बांधी थी उस समय कृषि और गोपालन-कर्म हम
अर्थात्-जीवोंका घात न करता हुआ भी पापी धेश्योंकी तरफ रखा था। शूद्रोंमे सेवा लेकर दोनों कर्म हम होता है और घात करता हुआ भी पापी नहीं होता है,
लाग बराबर करते थे। उस जमानेम गोवंशही धन यह केवल संकल्पका फल है । जैसे धीवर और किमान । गिना जाता था। वास्तवमें है भी ऐसा ही । परन्तु जबसे धीवर जालमें मछली नहीं आने पर भी पापी होता है, हमने विलायती तालीम ली हमारी मति भ्रष्ट हुई, हम और किसान खेतीमें हिंसा करता हुश्रा भी पापी गोवंशको धन न समझकर चांदी सोनेको धन समझने लगे। नहीं है। परिणाम यह हुआ कि हम दोनों तरफसे कोरे होगये।
इस परसे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि-खेतीमें उधर तो गोवंश छोड़ बैठे और इधर जो चांदी सोना इकट्ठा
होने वाली हिंसा संकल्पी हिंसा नहीं है। जैनोके पुराणकिया था वह सात समुद्र पार चला गया। यह तो वही
पुरुषोंके कथानकसे यह बात और भी अधिक स्पष्ट हो मसल हुई कि
जाती है। जैनोंके श्रादि तीर्थंकर भगवान ऋषभदेवने "न खुदा ही मिला न विसाले सनम । लोगोंको अपने-अपने कर्मोंकी व्यावहारिक शिक्षा दी थी।
न इधरके रहे न उधरके रहे ।।१। । जैन मान्यताके अनुसार श्रीकृष्ण और उनके बड़े कृषि और गोपालन बोडकर हमने गांबड़े बर्बाद किए भाई श्री बलभद्रकी गिनती महापुरुषों में है । ये दोनों भाई और शहर पाबाद किए। भीमकाय राक्षस-जैसे यांत्रिक
खास गोपालक और कृषक थे। खेतीका प्रसिद्ध औजार कारखाने खोले । श्रम कर्म त्याग कर दूसरोंके कंधों पर चढ़ "हल" को तो बलभद्रने अपना खास शस्त्र भी बना रखा बैठे। करोदोको बेकार और गरीब बना डाला, गृहोद्योग
था, युद्ध में वे उसीसे काम लेते थे और इसलिये उनका
था, युद्धम व उसी नष्ट होगया । अब गौ-रक्षा कौन करे ?- शहरोंमें गऊकी नाम ही "हलधर" पड़ गया था। इसी तरह श्रीकृष्णकी रखामें कठिनाइयां अधिक । दसरोंके कंधों पर बैठने वाले तरफ गोपालनका काम था, अतएव वे भी "गोपाल" कहहम कठिनाइयों में क्यों पड़ने लगे? बच्चों के लिए दूध भी "प्रावर्तयज्जनहित खलु कर्मभूमौ विजारती (खिम्बे का) वर्तना स्वीकार कर लिया । अब
षटकर्मय गृहिवृषं परिवर्त्य युक्त्या । बाकी क्या रहा ? सारी संस्कृतिका सफाया हो गया। एक निर्वाणमार्गमनवध मजः स्वयम्भूः कखिने हमारे इस नाशकारी जीवनका दो लकीरों में फोटो
श्री नाभिसूनुजिनपोजयतात्स पूज्यः॥" खींचा है। वह कहता है
(पानंदि प्राचार्य)