________________
गरीवका धर्म
२१९
बनाते आये और उपदेश देते आए--पर आज भी हालत कुछ में फैलाते हैं। भारतीय रेडियो तो अब भी वही मध्यसुधरी नहीं दीखती-बल्कि ज्यों-ज्यों "उन्नति" होती कालीन कथा-कहानियां बाराबार प्रसारित कर लोगोंकी जाती है मानव अधिकाधिक निरंकुश या विनाशवादी होता अंधश्रद्धा एवं धर्मावताकी वृद्धि ही करता है। यह एक जाता है। और सीमाओंसे बाहर चलता जाता है। हानि स्वतंत्र देशके लिए बड़ी भारी विडम्बना है जो प्रगतिमी उठाता है। पर इसकी उसे पर्वा नहीं। वह तो मोहित- शीलताका दावा करते हुए इस तरह अपने देशके प्रचारसा हो रहा है।
यन्त्र द्वारा ही बराबर अंधकारकी तरफ ही देशको देशो और व्यक्तियोंकी गरीबीके बावजूद भी ज्ञानका ढकेलता है। विकास तो होता ही जाता है-फिर भी आजका मानव यों भी धर्म या धार्मिक उपदेश उसीपर अधिकतर अबतक यह नही स्थिर कर पाया कि मानवोचित क्या असर करते हैं जो हर तरह संतुष्ट और निश्चिन्त हैं। कर्तव्य है और क्या अकर्तव्य । भिन्न-भिन्न धर्मों और धर्म- त्याग भी उसीके लिए है जिसके पास कुछ त्याग करनेको गुरुओंने अपनी-अपनी खिचड़ी, अलग पकाकर लोगोंको हो । गरीब भूखा तो सर्वदा भूखसे पीड़ित, अभावसे संत्रस्त और अधिक भ्रममें डाल रखा है। कोई मानव-हिंसाको और संसारकी प्रगतियोंसे बेहोश या अनजानसा ही हैबजित करार देकर पशु-हिंसामें कोई बुराई नही मानता उसे पहले भोजन चाहिए, फिर दूसरा कुछ। हम उपदेश तो दूसरा दोनोंको पाप कहते एवं मानते हुए और समझते देते हैं-अहिंसाका आचरण कगे, सत्य बोलो, दूसरोंकी हुए भी हरतरहकी हिंसामें लगा हुआ है। यही हालत भलाई करो। भला एक गरीब, पतित, अजानपर इनका जन-जीवनके सभी विभागो, संस्थाओ, पहलुओं, क्या प्रभाव पड़ सकता है ? इतना ही नहीं अधिकतर उच्च मंगठनों, स्थानो और संस्थानोमें हो रही है । उपदेशक वर्गीय कहलानेवाले व्यक्ति या पंडितगण अपने उच्चताके लोग अबभी अपनी-अपनी ढापली बजाए ही जाते है । ऐसी अभिमानमें ऐसोंको नीच ही नही गिनते बल्कि कड़ी घृणा अव्यवस्था और अवहेलना क्यो ? उपदेशोंका असर लोगो करते है और हर तरहके जोरदार नर्को (अतर्क, कुतर्क पर क्यो नही होता ? धनी पर भी नही और गरीबपर और भ्रमात्मक तर्क) द्वारा ऐसे लोगोंको शुद्ध, उच्च और भी नहीं।
पवित्र नहीं होने देना चाहते न उन्हे अच्छा उत्तम नागरिक प्राचीनकालम एक-एक छोटे-छोटे गाव, नगर या वननेके अधिकार ही देना पसन्द करते है। कहते है मंदिर राजतंत्र स्वावलंबी होते थे और अपनी अधिकतर आवश्य- गन्दे हो जायेंगे, मूर्तिया अपवित्र हो जायेंगी। भला यह भी कताए स्वय पूरी कर लेते थे । गरीबी नब भी थी अब भी कोई दलील है ? कोरा चमड और घृणाका नंगा स्वरूप है। पर उस समय यातायातका साधन विकमित नही मात्र उन्हे पवित्र-अपवित्र और शुब-अशुद्धका सच्चा होनेसे ऐसे गांवो. नगरी या मडलोकी अपनी-अपनी भान ही नही, भले उन्होने बडी सी विद्या पढ ली हो पर दुनियां ही अलग-अलग खास मीमाओसे सीमित हुई सी उससे क्या, वह फिर भी दूषित ही कही जायगी। यदि बन गई थी। कोई उपदेशक या धर्मगुरु शिष्योंकी जमात मानव "सम नता" और "समता" के भाव उनमें नहीं हुए लिए कही पहुंचकर मशहूर हा जाता था और फिर उसके या नही रहे तो मंदिर, मन्त्र और मूर्तियां बनी ही उपदेशोंका बडा प्रभाव पड़ता था। इतना ही नहीं, राजाओ इसलिए है कि अशुद्ध और अपवित्र शुद्ध और पवित्र हो या प्रमुख विद्वानो और पडितोंको अपने प्रभावम लाना जाय । यदि उलटे मत्र और मूर्ति ही उनके स्पर्श या दर्शनउस समय अधिक सहल था। एक दफा कोई राजा या मात्रसे अशुद्ध और अपवित्र हो जाये तो ऐसे मंत्रों और किमी नगरका प्रमुख व्यक्ति एव पंडित बा विद्वान जब मूर्तियोंको क्या करना चाहिए। कोई समझदार स्वयं सोच किसी ऐमे उपदेशकके प्रभावमे आजाता था तो उसकी कर कह सकता है। क्या यह पाषंड या ढोग नही है ? शिक्षाओको जन-साधारणमें फैलने में देर नहीं लगती यह मंत्रों और मूर्तियोंका अपमान है। पर असलमें मूलतः, थी। अब आधुनिक कालमें वह बात नहीं रही। आज- मारा दोष उस पूंजीवादी व्यवस्थाका है जहां ऊंच-नीच, छूतकल तो प्रचारका प्रमुख माधन रेडियो भी सरकारोंके अछूत, धनी-गरीब, इत्यादि भेद-भाव बनाए रखना इसलिए ही हाथमे है--वे जैमा जो कुछ चाहते है देश या संमार- आवश्यक है कि कुछ लोग बाकियोंके ऊपर अपना प्रभुत्व .