________________
.२४०
अनेकान्त
अक्षुण्ण रख सकें, धनी बने रहें और दूसरा गरीब रहकर, कालसे चली आती है उसका वह एकदम ही अभाव हैबछूत रहकर उनकी गुलामी करता रहे, उनके अत्याचार वहां लोग सन्चे ज्ञानको खोजमें जोरोंमें लगे हुए है और सहता रहे।
सच्चे ज्ञान वाले सिद्धान्तों और तत्त्वोंके प्रचारकी वहा __ आज हम क्या पाते है ? तीर्थंकरों, मुनियों, धर्माचार्यों मत जरूरत है, आधुनिकतम तरीकोंमे उन्हीके देशकी और लाखों उपदेशको और सन्नीने न जाने किस प्राचीन- भाषामें जोरोमे प्रचार करनेसे उन्हें जैन सिद्धान्तोंकी कालसे अबतक लोगोंको उपदेश दिया--स्वय आचरण वैज्ञानिकताके कारण इसमे दिलचस्पी एव इधर झुकाव करके, कष्ट सहकर, अपनी बलि देकर उदाहरण उपस्थित अवश्य होगा। हमारे धनिकवर्ग चाहे तो बहुत-कुछ कर सकते किया पर कितने व्यक्तियोने अपनी सम्पत्ति छोड़ी और है। अभी तो जब भी "ममता" या "समानता" का शब्द लोगोंमें बांट दी? और कितने समयतक उनका प्रभाव उनके सामने आता है वे उसे रूसी साम्यवादका "हौवा" रहा? आज हर तरफ लूट और शठताका बाजार गर्म । समझकर इतना डर जाते है कि फिर मारी सदाशाएं और है। पुराने उपदेश तो है ही नए-नए हर क्षण निकलते ही मद्विचार क्षणमात्रमें हवा हो जाते है । वहा पूजीवादी प्रधान रहते हैं-सन्तोंकी कमी अब भी नही । पर क्या धनियोने मताका मचालन करनेवालोने इतना भयकर प्रचार कर अपना धन त्यागकर अपने पड़ोसियोंकी बराबरी कभी रखा है कि लोगोके मस्तिष्कको दूसरी तरफ बदलना पारण की? या केवल अपने कुटुम्ब परिवारके समुचित __आसान नही । इगलैण्डकी हालत तो और भी अधिक चिन्ताभरण-पोषणलायक रखकर बाकीको "सर्वोदय" के लिए जनक है। सच पूछिए तो वर्तमान युगकी सारी ऊंच-नीच लगा दिया हो? ऐसे उदाहरण भी कही-कही मिलते है पर कई व्यवस्थाका आधुनिकतम रूप इगलैण्डकी ही देन श्रापकही करोड-दस-करोड़ व्यक्तियोंमें एकाघ ही-उससे क्या रूपमे संसारके ऊपर हावी है। मनुष्यको धर्म और आत्मा, होगा--महासागरको भरनेके लिए एक अंजुली बाल! सत्य और अहिसा इत्यादिको बाते उसी समय सामूहिक जबतक संसारमें धन ही प्रभुता, सुख, शक्ति इत्यादिका रूपमे हर्षित करेंगी और स्वीकृत होंगी जब उसे जीवनमापदंड या दाता रहेगा, लोग हर उपायोंसे संचय करना यापन, कुटुम्ब-परिपालन और वृद्धावस्थाके निर्वाहके प्रश्नोनही छोड़ेंगे फिर त्यागका सवाल ही कहां उठता है? का समुचित समाधान निश्चितता या बीमा (Assurance संसारसे दुःख, दरिद्रता और गरीबी मिटानेके लिए उपदेश or Guarantee) एवं निशंकता हो जायगी । ऐसी
और दानसे काम नही चलनेका । यह तो कोई काम हालतमें ही वह “सर्वोन्नति" की ओर सच्चा ध्यान देगा, सामूहिक रूपसे, सरकारोंकी ओरसे और दबावयुक्त होनेसे अपनी भी उन्नति करेगा और समाज एव मानवताका भी ही देशों, समाजों और व्यक्तियों में अधिकाधिक "समानता" उत्कर्ष करनेमे पूर्ण सहायक होगा। या "समता" लाई जा सकती है। जितनी अधिकाधिक मेरे कहनेका मतलब यह नही कि जबतक ऐसी "समता" और "समानता" का व्यापक प्रसार होगा। परिस्थिति या स्थिति न हो जाय लोग चुपचाप बैठे रहें। संसारसे असत्य, हिंसा, युद्ध और दुःख दारिद्रय उतना ही श्री विनोबाभावे "भुमिदान-यज्ञ" कर रहे है । काफी अधिकाधिक दूर होते जायेगे। लोगोंका ध्यान भी जीवन- सफलता भी उन्हें मिल रही है। यही काम यदि आजसे दम यापन की चिन्ताओंसे मुक्त होकर धर्म, परोपकार, सत्य, वर्ष पहले आरम्भ किया जाता तो उसका कुछ भी फल अहिंसा इत्यादिकी तरफ अपने-आप जायगा।
नहीं निकलता-अब परिस्थितिया बदल गई है एवं तेजीप्रश्न हो सकता है कि भारत तो गरीब देश है, यहां से बदल रही है। फिर भी जिस ध्येयको लेकर यह काम गरीबोंकी सख्या अधिक होनेसे अच्छे उपदेश कारगर नही हो रहा है उसके लिए तो वर्तमान व्यवस्था बदलनेसे ही होते पर अमेरिका, इगलैण्ड इत्यादि देश तो बड़े ही समृद्धि- कुछ स्थाई कार्य हो सकता है । यो तो जो लोग अपनी शाली है, वहां तो लोग निश्चित है उपदेशोका असर पडना भूमि दे रहे है वे भी अधिकतर यही देखकर दे रहे है कि चाहिए था। हां, होना तो ऐसा ही चाहिए था पर वहां आगे उसे रखना सभव नही-आज नहीं तो दो-एक वर्ष मभी लोग संचयात्मक विचार वाले ही है और भारतमे बाद सही उन्हें मजबूरन जमीन छोडनी ही पडेगी। इसके जो त्यागमय शिक्षाओंकी श्रृंखला या तारतम्यता प्राचीन अतिरिक्त भी दान देकर दानी तो अपनेका उपकारी एव