________________
किरण ३]
गरीबका धर्म
२४१
-
%3
-
=
सर्वसाधारणसे ऊंचा समझने लगता है। दानको राति हो और अधिक संचय यही हमारा एकमात्र जीवनोद्देश्य बन तो पूजीवादी व्यवस्थाका प्राण है और ऊंच-नीच, धनी- गया है। हम गरीबों पर दया एवं करुणा करते हैं। पतितों गरीब, दाना-याचककी भावनाओको बनाए रखनेका प्रमुख पर घृणा करते हैं--कभी-कभी अनुग्रह भी करते हैं पर हम आवार या यत्न है। फिर भी एकदम कुछ नहीसे इस तरह- कभी न उन्हे उठाना चाहते हैं न उठने देना चाहते है। हम की भूमिदान वर्तमान परिस्थितियोंमें कुछ बुरा नहीं है। भले ही अपने धर्मको “सार्वभौम" घोषित करें और थोड़ाकम-से-कम एक लाभ तो है कि लोग अब यह समजते या बहुत दानवान करके, मंदिर, धर्मशाला इत्यादि बनाकर या महसूस करते जारहे है कि वर्तमान सामाजिक व्यवस्था कुछ पडित कहे जानेवाले व्यक्तियोंको धनमानसे संतोषितकर एवं रूडिया अब अधिक नही चलेंगी ओर उन्हें बदलना हो अपना "सिकका" समाज एव मसारमे बनाए रखें पर यह होगा एवं गरीब-अमीरमें अब अधिक भेद या दूरी बनाए नोन धर्म है न सच्ची मानवता ही। रग्वना देश और संसार दोनोके लिए हानिकारक है।
धनी धनमें व्यस्त है और गरीब अपनी गरीबी और चीन देशने हमारे सामने एक बडा ही ज्वलत उदाहरण अभावको दूर करनेमें लगा हुआ है। किसे धर्म और उपदेश रख दिया है। जहां दुख दैन्य लूट, बेईमानी, भ्रष्टाचारका सुननेकी फुरसत है हमारे उपदेशकगण तो मूलको पकड़नेबोलबाला था वहां अव अधिक-से-अधिक लोग स्वावलबी और की बजाय एकाध "पत्ते डौगी" तोडताड़ कर ही दुखरूपी सत्यशील होते जारहे है । माना कि वहा "आत्मा" और और अशान्ति रूपी विष वृक्षका नाश करनेकी बात करते ईश्वरमें विश्वास अभी घट गया है-पर यहतो केवल एक है-भला यह सैकड़ों, हजारों, लाखों वर्षों में भी होने का है? प्रतिक्रिया (reaction) मात्र है जो अधिक सुख-संतोष उल्टे और बढ़ता ही जायगा जैसा अबतक होता आया है। बढनेपर स्वयं धीरे-धीरे दूर हो जायगा। अभीतो वहां भी सत्य, अहिंसा, धर्म, सर्वोदय इत्यादि साघु भावनाओंको लोगोंका केवल मात्र एक यही ध्येय है कि कैसे सबका पेट फैलाने, कार्यरूपमें व्यापक और प्रभावकारी रूपमें परिणत भरे और हजारो वर्षों के सतापके बाद थाडे आरामको प्राप्ति करनेके लिए सर्वप्रथम जरूरी है सामाजिक एवं राजनैतिक हो । अभी तो वे उत्पादन और सगठनमे अपनी सारी शक्ति सुधार समुचित रूपसे लाकर गरीबी दूर करना और "समता" लगानेमे एकदम व्यस्त है उन्हे दूसरी तरफ देखनेकी फुर्सत एव "समानता' की सस्थापना और संवृद्धि करना। यदि भी नहीं। ऊपरमे युद्ध और आसन्न आक्रमणका भय शान्ति मसारके सारे उपदेशक, दार्शनिक (Philosophers) और चैनकी सास नहा लेने देता फिर तो आत्मा परमात्मा- भ्रम छोड़कर लोगोंको अपनी गलत बातोंके प्रचार द्वारा को कौन पूछता है। भारतमे भी तो "आत्मा परमात्मा" की गलत मार्गपर चलनेसे बचाना चाहे तो उन्हे अपने विचारोंमें आते केवल खोखली और भुलावा मात्र रह गई है । जैनियोमे सम्यक मुधार करना होगा। मानव-मानवको जन्मसे समान ही कितने करोड़पति पडे हुए है क्या कभी उन्होने अपरिग्रह और बराबर मानना एवं बनानेको चेष्टा करनी होगी तभी पर क्रियात्मक विश्वास किया? फिर उनके लिए जनवर्म ससारमें स्थाई शान्ति भी हो सकेगी और सचमुच सभी सुखी और सिद्धान्तोंका प्रतिपादन दिखावा और “छलना" नही तो हो सकेंगे। सच्चे अर्थोंमें "सर्वोदय" होगा और लोग निस्पृह क्या है ? सच्चा जन तो हम उसे कहे जो "अपरिग्रहो" एव एब सत्यवादी और अहिंसक होंगे। तभी जैनधर्मकी भी "समदर्शी" होनेके मार्गमे अवस्थित हो और आगे बढ़ रहा और संसारके दूसरे सच्चे धर्मोकी भी सार्थकता कही जायगी। हो। हम तो ठीक उलटी तरफ चल रहे है। मंचय, मचय
पटना, ता० २७-३-५२