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अनेकान्त
[ वर्ष ११
* अहिंसा * ( पं० विजयकुमार जैन साहित्यरत्न )
जियो और जीने दो का जो भाव हमें बतलाती । मानवमें मानवताका जो दर्शन दिव्य कराती ।। जिसकी सुख-शीतल छायामें बैठ अनेकों प्राणी । वैर-विरोध मूल पा जाते शान्ति सुधा कल्याणी ॥
समर श्रान्त सम्राट नृपतिवर थे अशोक से योद्धा । जिनके तेजपराक्रमसे थे भीत शत्रु संयोद्धा ।। बैठ अ-शोक बने इसकी सुख शीतल-सी छायामें। माधक इसके रहे अनेकों भूल न जग मायामें ।
अभय और विश्वास सदा जो जन-जीवनमें भरती। घृणा और प्रतिहिंसाकी ज्वालाको जो नित शमती ॥ जिसका नव संगीत सुमधुरिमा-राग हृदयमें भरता। पावन-प्रेम-प्रवाह सुधा निर्झर-मा झर्भर बहता ॥
इसी अहिंसाकी पावन गंगामें कितने प्राणी निज कल्मष धो चुके जिन्होंने जीवन ज्योति पिछानी इसका तीर्थ बनाने वाले हुए अनेकों ज्ञानी जिनने स्वात्म-विभूति मात्रको सतत सुख प्रदा मानी॥
जो बनकर आलोक जगतका घन-तम हरती रहती। मानसकी अन्तर्गङ्गासी पावन कल्मष हरती ॥ स्नेह भरी नव-ज्योति जगमगाकर सत्पथ बतलाती। विश्वप्रेमकी मूर्ति भावमें पावनता भर लाती ॥
वही समन्तभद्रसे मुनिवर कुन्दकुन्द गुरु ज्ञानी । विद्यानन्द प्रवीण उमास्वामीसे हुए अमानी ।। जिनने इसके परम अमृतको बाटा जग जीवनमे । पीकर कितने अमर हो चुके पा स्वशक्ति निज मनमें।।
जो वीरोका धर्म और धीरोंकी प्रबल निशानी । स्वानुभूतिमय आत्म-रमणको अन्तर्वृत्ति पिछानी ।। राग-नेषमय भव-बन्धनका पाश खोलने वाली । आत्म-आत्म पर-परका अन्तर्बोध जगाने वाली॥
यही अहिंसा जिसके बल पर हुआ सत्य-उद्घाटन । सर्वोदयी विचारोंका जिसमें नित नव प्रोद्घाटन ।। अनेकान्त स्याद्वाद समन्वय मार्ग इसीका निश्चय । नय-प्रमाणका बोध लिए चलना है नहीं अनिश्चय ।
दानव-मानवमें बस जिसही का अन्तर रहता है। दानवमें जो नही मनुजसे जिसकी मधु ममता है। मानवका अधिकार जिसीके बलपर सदा टिका है। और मुक्तिका द्वार उसीके बलपर सदा खुला है ।
मंत्री हो जीवोंसे नित लख गुणी मोद उमगाये । दुखी विपन्न जनोंपर मन करुणा सम्भार बहाये। जो विपक्षजन उनके प्रति हो शुभा सशना मेरी। देती शुभ आशीस अहिंसा हो सुबुद्धि यह तेरी ॥
यही अहिंसा है जिसने खोले स्वराष्ट्रके बन्धन । बापूको देवत्व दिया बढ़ चला विजयका स्पन्दन ।। महावीरकी परम साधनाका प्रतीक यह निश्चय । पुखदेवको रही इष्ट इसमें भी नही अनिश्चय ।।
यह अमोघ है अस्त्र न जिसका व्यर्थ कभी फल होता। वीरोका वीरत्त्व सदा इस ही से जगता होता । समताकी प्रतिमूर्ति सिंह मृग मिलते सुहृदयतासे पा जाते सब अभय इसी जग जननीकी ममतासे॥