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फिरणं १]
मानव-धर्म
भावार्थ--गृहत्यागी मुनिका दर्जा आम तौरपर और चांडालके पुत्र तकको सम्यग्दर्शनका पात्र बतलाया गृहस्थसे ऊँचा होता है। परन्तु जो गृहस्थ सम्यम्बर्शनसे गया है। ऐसी हालतमें यह स्पष्ट है कि हीन-से-हीन जातिसम्पन्न है उसका दर्जा जैनागमकी दृष्टिके अनुसार
कुलवाला गृहस्थ भी जो सम्यग्दृष्टि है-अनेकान्तदृष्टिसे
पाला गृहस्थ भा जा सम्यग्दा
सम्पन्न है-वह उस उच्च-से-उच्च जाति-कुलवाले मुनिसे उस मनिसे ऊंचा है जो सम्यग्दर्शनसे सम्पन्न नहीं है
भी ऊंचे दर्जे पर है जो शास्त्रोंका बहुत कुछ पाठी तथा अथवा अनेकान्तदृष्टिसे विहीन है । गृहस्थपदमें सभी बायाचारमें निपुण होते हुए भी मिथ्यादृष्टि है-सर्वथा जातियों और सभी श्रेणियोंके मनुष्योंका समावेश होता है एकान्तदृष्टिको लिये हुए द्रव्यलिंगी है।
-युगवीर
मानव-धर्म
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मानव-धर्म मानवोंसे नहिं करना घृणा सिखाता है; मनुज-मनुजको एक बताता भाई-भाईका नाता है। असली जाति-भेद नही इनमें गो-अश्वादि-जाति-जैसा; शूद्र-बाह्मणीके संगमसे उपजे मनुज, भेद कैसा ? ॥१॥
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र ये भेद कहे व्यवहारिक है। जाति-कुमदसे गवित हो जो धार्मिकको ठुकराता है; निज-निज कर्माश्रित, अस्थिर, नहिं ऊंच-नीचता-मूलक है। वह सचमुच आत्मीय धर्मको ठुकराता न लजाता है। है सब है अंग समाज-देहके, क्या अन्त्यज, क्या आर्य महा; क्योंकि धर्म धार्मिक पुरुषोंके बिना कही नही पाता है;
क्या चाडाल-म्लेच्छ,सबहीका अन्योन्याश्रित कार्य कहा ॥२॥ धार्मिकका अपमान इसीसे वृष-अपमान कहाता है ॥५॥
सब है धर्मपात्र, सब ही है पौरिकताके अधिकारी; मानव-धर्मापेक्षिक सब है धर्मबन्धु अपने प्यारे; धर्मादिक अधिकार न दे जो शूद्रोंको वह अविचारी। अपनोंसे नहिं घृणा श्रेष्ठ है, हैं उद्धार-योग्य सारे । ६ शूद्र तिरस्कृत-पीडित हो निज कार्य छोड़ दें यदि सारा; अतः सुअवसर-सुविधाएँ सब उन्हें मुनासिब देना है। है तो फिर जगमें कैसी बीते ? पंगु समाज बने सारा ||३|| इस से ही कल्याण उन्होंका औं अपना भी होना है ।।६।।
गर्भवास औ' जन्म-समयमें कौन नहीं अस्पृश्य हुआ? बन करके 'युग-वीर' उठा दो रूढि-जनित संस्कारोंकाहै कौन मलोंसे भरा नहीं ? किसने मल-मूत्र न साफ किया? पर्दा हृदय पटलसे अपने, हा दो गढ़ हुंकारोका । है किसे अछूत जन्मसे तब फिर कहना उचित बताते हो? तब होगा दर्शन सुसत्यका, मानवधर्म-पुण्यमयका; इतिरस्कार भंगी-चमारका करते क्यों न लजाते हो? ॥४॥ जीवन सफल बनेगा तब ही, अनुगामी हो सत्पथका ॥७॥
-युगवीर