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अनेकान्त
[वर्ष ११ उससे आत्माका कौनसा प्रयोजन सघ सकता है? कोई भी जाता है, और पापके प्रभावसे-मिथ्यादर्शनादिके कारणनहीं। और यदि पासमें पापानव है-मिथ्यादर्शनादिरूप एक देव भी कुत्तका जन्म ग्रहण करता है। धर्मके प्रसाबसे अधर्म-प्रवृत्तिके कारण बात्मामें सदा पापका बावष तोहपारियोंको दूसरी अनिर्वचनीय सम्पत्तककी प्राप्ति बना हमा है तो फिर अन्य सम्पत्तिस-मात्र कुल- हो सकती है। (ऐसी हालतमें कुल, जाति तथा ऐश्वर्यादिसे जाति-ऐश्वर्यादिकी उक्त सम्पत्तिसे-क्या प्रयोजन है ? हीन धर्मात्मा लोग कदापि तिरस्कारके योग्य नहीं होते।)' वह आत्माका क्या कार्य सिद्ध कर सकती है ? कुछ भी नही। ___ भावार्थ-धर्मात्मा वही होता है जिसके पाप- गृहस्थोको गौरव-प्रदान . का निरोष है-पापासव नहीं होता। विपरीत इसके स्वामी सामन्तभद्रने, अपने समीचीनधर्मशास्त्रमें, जो पापास्रवसे युक्त है उसे पापी अथवा अधर्मात्मा समझना 'चेलोपसृष्टमुनिरिव गृही तदा याति यतिभावम्' इस वाक्यके चाहिए। जिसके पास पापके निरोषरूप धर्मसम्पत्ति अथवा द्वारा सामायिकमें स्थित गृहस्थको उस मुनिके समान यतिभावपुण्यविभूति मौजूद है उसके लिये कुल-जाति-ऐश्वर्यादिकी को प्राप्त हुआ निर्ग्रन्थ मुनि लिखा है जिसको किसी भोले भाईसम्पत्ति कोई चीज नहीं-अप्रयोजनीय है। उसके अन्तरंग- ने दयाका दुरुपयोग करके वस्त्र ओढ़ा दिया हो और वह में उससे भी अधिक तथा विशिष्टतर सम्पत्तिका सद्भाव मुनि उस वस्त्रको अपने लिये एक प्रकारका उपसर्ग समझ है, जो कालान्तरमें प्रकट होगी, और इसलिये वह रहा हो, और इस तरह गृहस्थ एक ही दिनमें प्रतिदिन श्रावक तिरस्कारका पात्र नहीं। इसी तरह जिसकी आत्मामें और मुनि अथवा अणुव्रती और महाव्रती' दोनोंकी अवस्थापापास्रव बना हुआ है उसके कुल-जाति-ऐश्वर्यादिकी को प्राप्त होता है-वह एकान्ततः श्रावक या अणुवती ही सम्पत्ति किसी कामकी नहीं। वह उस पापावके कारण नही है, ऐसा सूचित किया है। परन्तु इससे भी अधिक शीघ्र नष्ट हो जायगी और उसके दुर्गति-गमनादिको गृहस्थोंको गौरव प्रदान करनेवाली उनकी निम्न अमृतवाणी रोक नही सकेगी। ऐसी सम्पत्तिको पाकर मद करना मूर्खता खास तौरसे ध्यान देने योग्य है, जिसमें एक गृहस्थको है। जो लोग इस सम्पूर्ण तत्त्व (रहस्य) को समझते हैं वे मुनिसे भी श्रेष्ठ बतलाया गया हैकुल, जाति तथा ऐश्वर्यादिसे हीन धर्मात्माओंका
गृहस्थो मोक्षमार्गस्थो निर्मोहो नैव मोहवान् । सम्यग्दर्शनादिके धारकोंका-कदापि तिरस्कार नहीं करते।
अनगारो, गृही श्रेयान् निर्मोही मोहिनो मुनेः ।। सम्यग्दर्शन-सम्पन्नमपि मातंगवेहजम् । देवा देवं विदुर्भस्मगूढांगाराऽन्तरोजसम् ॥
'निर्मोही-दर्शनमोहसे रहित सम्यग्दृष्टि-गृहस्य 'जो मनुष्य सम्यग्दर्शनसे सम्पन्न है-सत् श्रद्धानरूप ।
मोक्षमार्गी है-धर्मपथपर आरूढ है, भले ही वह धर्मसम्पत्तिसे युक्त है-वह चाहालका पुत्र होनेपर भी पुलजात
पर कुल जाति अथवा वेष तथा चारित्रादिसे कितना ही हीन -कुलादिसम्पत्तिसे अत्यन्त गिरा हुआ समझा जानेपर भी
परी क्यों न हो-किन्तु मोहवान-दर्शनमोहसे युक्त देव-आराध्य है, और इसलिये तिरस्कारका पात्र नही, मिथ्यादृष्टिगृहत्यागी मुनि मोक्षमार्गी नहीं है-धर्मपथपर ऐसा आप्तदेव अथवा गणापराविक देव कहते है। उसकी
आरूढ़ नहीं है, भले ही वह कुल-जाति-वेषसे कितना ही उच्च बशा उस अंगारेके सदृश होती है जो बाहामें भस्मसे
तथा बाह्य चारित्रमें कितना ही बढ़ा-चढा क्यों न हो। आच्छावित होनेपर भी अन्तरंगमें तेज तथा प्रकाशको लिए
अतः जो भी गृहस्थ मिथ्यावर्मनसे रहित सम्पन्दष्टि है हुए है, और इसलिये कदापि उपेक्षणीय नहीं होता।
बह बर्शनमोहसे युक्त (प्रत्येक जाति के) मिथ्यावृष्टिमुनिसे स्वापि देवोऽपि देवः वा बायतेपर्मकिल्वियात् । काऽपि नाम भवेबन्या सम्पबाच्छरीरिणाम् ॥ 'व्रती गृहस्थको दिग्वत और देशव्रतकी अवस्थाओंमे सीमासे
“(मनुष्यतो मनुष्य) एक कुत्ता भी धर्मके प्रतापसे बाहरके क्षेत्रोंकी दृष्टिसे पंचमहाव्रतोंकी परिणतिसे युक्त तथा -सम्यग्दर्शनादिके माहात्म्यसे-स्वर्गादिमें जाकर देव बन उनका प्रसाधक तक लिखा है। (सा०प० ७०,७१,९५)।