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________________ समन्तभद्र-वचनामृत मदनिषेध 'बो गर्वितचित हुआ घरमें बाकर-कुल-आति श्रीवीर-तीर्थके अनन्य भक्त और महाप्रभावक आचार्य आदि-विषयक किसी भी प्रकारके मदके वशीभूत होकरस्वामी समन्तभद्रने अपने समीचीन-धर्म-शास्त्रमें धर्मके सम्यग्दर्शनादिरूप धर्ममें स्थित अन्य पार्मिकं को तिरस्कृत अंगभूत सम्यग्दर्शनका लक्षण प्रतिपादन करते हुए उसे परता है-उनकी अवज्ञा-अवहेलना करता है-वह (वस्तुतः) स्मयसे रहित बतलाया है। वह 'स्मय' क्या वस्तु है, इसका मामय धर्मको-सम्यग्दर्शनादिरूप अपने आत्म-धर्मकोस्पष्टीकरण करते हुए स्वामीजी स्वयं लिखते है ही तिरस्त करता है, उसीकी अवज्ञा-अवहेलना करता है। क्योंकि पार्मिकोंके विना धर्मका अस्तित्व कहीं भी नहीं जानं पूजा कुलं जाति बलमृद्धिं तपो वपुः । पाया जाता--गुणीके अभावमें गुणका पृथक् कोई अष्टावाश्रित्य मानित्वं स्मयमाहुर्मतस्मयाः ।। सद्भाव ही नही; और इसलिये जो गुणी धर्मात्माकी 'शान-विद्या-कला, पूजा-आदर-सत्कार-प्रतिष्ठा- अवज्ञा करता है वह अपने ही गुण-धर्मकी अवज्ञा करता है, यशःकीति, कुल-पितृकुल-गुरुकुलादिक, जाति- यह सुनिश्चित है।' ब्राह्मण-क्षत्रियादिक, बल-शक्ति-सामर्थ्य अथवा जन- भावार्थ-जो अहंकारके वशमें अन्धा होकर दूसरे धन-वचन-काय-मंत्र-सेनाबलादिक, ऋद्धि-अणिमादिक धर्मनिष्ठ व्यक्तियोंको अपनेसे कुल, जाति आदिमें हीन ऋद्धि अथवा लौकिक विभूति और पुत्रपौत्रादिक सम्पत्ति, समझता हुआ उनका तिरस्कार करता है-उनकी उस कुल, तप-अनशनादिरूप तपश्चर्या तथा योगसाधना, और जाति, गरीबी, कमजोरी या संस्कृति आदिकी बातको लेकर वपू-शोभनाकृति तथा सौदर्यादि गुण-विशिष्ट शरीर, उनकी अवज्ञा-अवमानना करता है अथवा उनके किसी इन बाठोंको आश्रित करके-इनमेंसे किसीका भी आश्रय- धर्माधिकारमें बाधा डालता है-वह भूलसे अपने ही धर्मआधार लेकर-जो मान (गर्व) करना है उसे गतस्मय आप्त- का तिरस्कार कर बैठता है ! फलतः उसके धर्मकी पुरुष 'स्मय' अर्थात् मद कहते हैं। (और इस तरह ज्ञानादि स्थिति बिगड जाती है और भविष्यमै उसके लिये उस धर्मरूप आश्रयके भेदसे मदके ज्ञानमद, पूजामद, कुलमद, की पूनःप्राप्ति अति दुर्लभ हो जाती है। यही इस मदपरिणतिजातिमद आदि आठ भेद होते है । )' का सबसे बड़ा दोष है और इसलिये सम्यग्दृष्टिको आत्मइस मदकी मदिराका पानकर मनुष्य कभी-कभी इतना पतनके हेतुभूत इस दोषसे सदा दूर रहना चाहिए। उन्मत्त (पागल) और विवेकशून्य हो जाता है कि उसे उक्त मद-दोष किस प्रकारके विचारों द्वारा दूर किया मात्मा तथा आत्म-धर्मकी कोई सुषि ही नहीं रहती जा सकता है, इस विषयका तीन कारिकाओंमें दिशा-बोष और वह अपनेसे हीन कुल-जाति अथवा ज्ञानादिकमें न्यून कराते हुए स्वामीजी लिखते हैपार्मिक व्यक्तियोंका तिरस्कार तक कर बैठता है ! यह एक बदि पाप-निरोपोमयसम्पदा किं प्रयोजनम् बड़ा भारी दोष है। इस दोष और उसके भयंकर परिणामको अब पापालायोस्त्यन्यसम्पदा किं प्रयोजनम् । सुझात हुए स्वामाजान जा वचनामृतका वषा का ह बह इस 'यदि (किसीके पास) पापनिरोष है-पापके नाखव को रोकनेवाली सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रयधर्मरूप निषि मौजूद स्मयेन योऽन्यानत्यति धर्मस्थान् गविताशयः । है-तो फिर अन्यसम्पत्तिसे-सम्यग्दर्शनादिसे भिन्न दूसरी सोऽत्येति धर्ममास्मीन धर्मो धामिर्कबिना। कुल-जाति-ऐश्वर्यादिकी सम्पत्तिसे-पया प्रयोजन है?
SR No.538011
Book TitleAnekant 1952 Book 11 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1952
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size29 MB
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