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________________ वीर-तीर्थाऽवतार तीर्थोत्पत्तिका समय सावणबहुलपडियदे सहमसे सुहोदए रविणो । जैनियोंके २४ वें तीर्थकर श्री वीरजिन, जिन्हें महावीर, अभिजिस्स पढ़मजोए जत्प चुगावी मुणेयव्वा ॥३॥ सन्मति और बर्द्धमान नामों से भी उल्लेखित किया जाता है, श्रीवीर भगवानका जन्म चैत्रशुक्ला त्रयोदशीको जब अपनी मौनपूर्वक बारह वर्ष की घोर तपश्चर्या के अनन्तर हुआ था। उन्होने मोटे रूपसे ३० वर्षकी अवस्थामें जिनदीक्षा वैशाख सुदि दशमीके दिन अशेष घातिकर्ममलका नाश कर ली, १२ वर्ष तक तपश्चरण किया और ३० वर्ष तक उपदेश केवलज्ञानको प्राप्त हुए-विश्वके सारे चराऽचर पदार्थ के लिये विहार करके कार्तिकी अमावस्याके दिन निर्वाणउनके विमल-अनन्त शानमें साक्षात् झलकने लगे-तब पदको प्राप्त किया। उनके तीर्थको अवतार लिये आज उससे ६६ दिनके बाद उनकी सर्वलोक-हितकारिणी संपूर्ण (माघशुक्ला पूर्णिमाको) २५०७ वर्ष ७ महीने का समय पदार्थ तत्त्वोका यथार्थ प्रतिपादन करनेवाली और समस्त हो गया है । संशयोंका उच्छेदन करने वाली पवित्रवाणी सर्वप्रथम खिरी।। इसी वाणीसे वीरके तीर्थका अवतार (जन्म) हआ है. तोत्पित्तिका स्थानजिसे प्रवचनतीर्थ, धर्मतीर्थ, स्याद्वादतीर्थ, वीरशासन, उक्त तीर्थकी उत्पत्तिका स्थान पंचशैलपुर (राजगृह अनेकान्तशासन और जिनशासनादिक भी कहा जाता है। नगर) की नैऋत दिशामें स्थित विपुलाचल पर्वत है, जिस उस समय इस भरतक्षेत्रके अवसर्पिणी-कल्प-सम्बन्धी के मस्तक पर होने वाले तत्कालीन समवसरणमंडलकी चतुर्थ कालके प्रायः (कुछ ही अंश कम)चौतीस वर्ष अवशिष्ट गन्धकुटीमें सिंहासनारूढ हुए श्री वर्धमान भट्टारक (भ रहे थे; तब वर्षके प्रथम मास प्रथम पक्ष और प्रथम दिनमें महावीर) ने अपना तीर्थ प्रवर्तित किया है। इस विषयका भावणा मा प्रतिपदाको पूर्वाह्रके समय, जब कि विस्तृत वर्णन उक्त 'धवला' टीका और 'जयधवला' में भी द्र महर्तमें अभिजित नक्षत्रका योग हो चका था और सर्यका 'तित्थु पत्ती कम्हि खेते ?' इस प्रश्नके उत्तरमें प्राचीन उदय हो रहा था, इस तीर्थकी उत्पत्ति हुई है। जैसा कि गाथाओंके उल्लेखसहित पाया जाता है। यहां उसका विक्रमकी ९वी शताब्दीके विद्वान आचार्य वीरसेन- बहुत थोडा-सा उपयुक्त अंश नीचे दिया जाता हैके द्वारा सिद्धान्त-रीका 'धवला' मे उद्धत निम्न तीन ... पंचसलउर-रह-विसा-बिसय-अइविउल-विउलप्राचीन माथाओंसे प्रकट है: गिरिमत्ययत्पए x x x समवसरणमंडलेxxx गन्धइमिस्सेऽवसप्पणीए बउत्थममयल्स पच्छिमे भाए। उडिप्पासायम्मि द्विसिंघासगारदेण वड्डमाणभडारएण बोत्तीसवाससेते किंचिति सेसूणए संते ॥१॥ तित्यप्पाइवं ।' उतच-पंचसेलपुरे रम्मे विउले पटवदुत्तमे । बासस्स पढममासे पढमे पक्सम्मि सावणे बहुले । णाणादुमसमाइण्णे देवदाणवबदिदे ॥१॥ महावीरेणत्यो मारिखपुष्वदिवसे तित्युप्पती दु अभिजम्मि ॥२॥ कहिओ भवियलोअस्स।
SR No.538011
Book TitleAnekant 1952 Book 11 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1952
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size29 MB
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