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________________ किग्ण ७-८] बन्देलखण्डके कविवर देवीदास [२७७ की भाबीके बदले हंगामे चा नाता था। कविको कारण अनादि काससे भापके चरण-शराकी प्राप्ति उक्त भावनाका रूप परमानन्द विहार में दिये हुए है, इससे मुझे भव-वनमे रुखमा पाप मैंने उस निम्न पदसे स्पष्ट है : भव-वासके माता बारकी रद शरण ग्रहण की । मूरति देख सुख पायो, अत है जिनेन्द्र ! मेरा यह भववार विनाश कीजिए, मैं प्रभु तेरो मूरति देख सुख पायो। जिससे मुझे स्वपदकी प्राति हो। कविका निम्न पद एक हजार आठ गुन सोहत, इसो भावनाका द्योतक हैलक्षण सहस सुहायो टेका। सुजस सुनि आयो शरण जिन नरे। जनम जनमके अशुभ करमौ , हमरे वैर परे दोऊ तसकर, रिनु सब तुरत चुकाया । राग-द्वेष सुन तेरे ॥ परमानन्द भयो परिपूरित, तुम सम और न दीसत कोई, ____ ज्ञान घटाघट छायो ||2| जगवासी बहु तेरे । अति गंभीर गुणानुवाद तुम, मो मन और न मानत दूजो, मुखकार जात न गाया । लीक लगाइ न बैरे॥१॥ जाके सुनत सरदहे प्राणी, मोह जात शिव मारगके रुख, कर्म-फन्द सुरझायो ॥२॥ कर्म - महारिपु घेरे । विकलपता सुगई अब मेरा, आन पुकार करी तुम सन्मुख, निज - गुण - रतन भजायो । दूर करो अरि मेरे ।। २॥ जात हतो कोड़ीके बदले, इस संसार असारविर्षे हम, जब लगि परखिन आयो ॥३।। भुगते दुःख घनेरे । कविवरने अन्य दूसरे पदमे जिनेन्द्रकं सुयशका अब तुम जानि जपो निशि-वासर, मुनकर उनकी शरणमे जानकी चर्चाको व्यक करते ___ दोप हरयो हम केरे॥३॥ हुए अपनी आत्माको राग-द्वेष-शत्र रूप चोरोंस काल अनादि चरण शरणाविन, छुटकारा दिलाने वाला जिनेन्द्र भगवान सिवाय अन्य भव - वनमांहि परेरे । कोई नहीं है, इस तरह अपनी श्रद्धाको दृढ़ताको व्यक देवियनास वास भवनाशन, किया है। कवि कहते हैं कि अब मेरा मन जिनेन्द्रका काज भए जिन चेरे ।। ४ ।। कोपकर अन्यत्र नहीं जाता, मोक्षमार्गम जातं हुए मुझ अष्ट कर्म रूप वैरी मोडा रोकते है। मैं उस स्थान पर इस तरह कविकी जिनेन्द्र भक्ति कितनी सरस और भानकी बराबर चेष्टा करता हूँ, परन्तु अभी तक नहीं जा भारमलामको निर्मल दृष्टिको लिए हुए मिकामा है। सका हूँ। इसीस हे जिनेन्द्र ! मैंने श्यपकी शरण में मा इसे बतलानेको भावश्यकता नहीं पाठक उनकी रचनायोंकर यह पुकार की है कि भाप मेरे इन शत्रुनों को दूर के अध्ययनसे सायं उसमतीजेको पा सकते हैं। उसमें काजिये। इस प्रसार संसारमें मैंने रहकर अनेक घोर कप अंधश्रद्धा, अंधर्भात मादि किसी भी सांसारिक कामनाको भोगे हैं जिनकी करुण कहानी कहना अपनो व्यथाको स्थान प्राप्त नहीं है। और बढ़ाना है, उन्हें आप स्वयं जानते हैं। पर वे सब परमानन्द विलास अपवा 'देवीविखास' गत 'पुकार दुःख अपने पदको भूल कर और परको भाना मागकर पच्चीस क निम्न पचाम भी किसी कामनाका समावस जो भारी अपराध मैंने किया था उसीके फल-स्वरूप वे नहीं है। अतः नहीं है। अतएव यह कि समीचीमा है और परम्परा जन्म-जम्माम्बरासे बराबर मेरे साथ चलेभा रहे। मुक्तिकी साधक है। मेरे उम दोषको दूर कीजिये, जिसके दूर हुए बिना मेरा "कर्म अकान करै हमरौं, अब हित होना संभव नहीं है। इन सब दुःखोंका प्रधान हमकों चिरकाल करै दुखदाई।
SR No.538011
Book TitleAnekant 1952 Book 11 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1952
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size29 MB
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