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ने शीघ्र ही सुमारके पास जाकर पाँच वाले चाँदीका कड़ा बनवाकर उस बच्चेकी माँको दे दिया । म उस कनेको पाकर प्रय हुई और भायजी बाजार में गये। दूसरे दिन मां उस बच्चेको मुखिया पुनः पहनाने लगी वो उससे वह कड़ा निकल पड़ा। बच्चेकी म मग ही सर्मिन्दा हुई और जब बाजार से भाषामी वापिस भाए, तब जाकर कहने लगी कि भावी! मुझसे बड़ी हुई ही आपको पूरा बेनेका दोष लगाया | भायजीने का, कोई हर्ज महाँ चीन कोलावेपर सन्देह हो ही जाता है, इस कनेको रहने दो।
अनेकान्त
एक समयकी बात है कि आप ललितपुर से कपदा aise और घोड़ेपर लादकर घर वापिस आ रहे ये कि जंगल के बीच में सामयिकका समय हो गया । साथियोंने मायसीसे कहा कि अभी एक मील और चलिये। महरं पना जंगल है और चोरोंका डर भी है। आयलीने कहा, आप लोग हम वो सामायिक के बाद ही पहले चलेंगे। और घोड़ेपरले कपड़ेका गट्ठा उतारकर घोड़ा एक ओर बांध दिया और भाप स्वयं सामायिक बैठ गए, इसने में चोर आये और कपये के गड्डे लेकर चले गए। पोषी दूर जानेपर चोरोंके दिव यह विचार उत्पन्न हुआ कि हम लोग जिसका कपड़ा चुरा करके जा रहे हैं वह बेचारा मूर्तिके समान स्थिर बैठा है मामी कोई साधु हो, ऐसे साधु पुरुषकी चोरी करना महा पाप है। इस विचार जाते हो बेचारे लौटे और रूपये हाँसे उठाये थे वहीपर रख दिए और कहने लगे कि महाराज से आपके गट्ठे रखे हैं अन्य कोई चोर आपको संग न करे, इसलिए हम अपना एक आदमी हो जाते है। इन चोर आगे चले और जी आपजीको उस घने भयानक जंगखमें अखा फोहर चले गए थे उन्हें मार-पीट की तथा उनका सब माल असबाब लूट लिया । भायजीके पास जो आदमी बैठा था, उसमे उनका ध्यान पूरा होने पर उनसे कहा कि महाराज ! अब आप अपना कपड़ा सम्हालो, हम जाते हैं।
[ वर्ष ११
लकड़ीमें १२ महीने रोटी बनाकर काई और अंत में उस पैसे को भी• बचाकर ले आए। वे रोजाना एक पैसेकी लकड़ी मोक्ष देते थे और रोटी बनानेके बाद उसका कोयला किसी सुनारको एक पैसेमे बेच देते थे। और अग दिन फिर उसी पैसेकी कड़ी खरीद लेते थे। इस उन्होंने एक पैसेको में ही एक वर्षका भोजन बनाया । इससे उनकी feeten करनेकी आदतका पता चलता है।
पं० देवीदास जी यू० पी० प्रान्तमें किसी स्थान पर दिया अध्ययन करनेके लिए गए। वहाँ आपने एक पैसेकी
ये तीनो ही घटनाएँ उक्त कविके जीवन के साथ खास सम्बन्धित है। इनके अतिरिक और मा अनेक किवदन्तियों कविके सम्बन्धमे उनके निवास स्थान दुगौदा प्रममें प्रचलित है पर उन्हें लेख वृद्धि यहाँ छोड़ा जाता है ।
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जिनेद्र-भक्ति
कविका जीवन जहाँ अध्यात्म शास्त्रोंके अध्ययन मे प्रवृत्त होता था वहां वह भक्तिरसरूप बागाकी निष्काम विमन धाराके प्रवाह में दुबक बनाता रहता था। वे जिनेन्द्र भगवानके गुयोंका चिन्तन एव भक्ति करते हुए इवनं तन्मय अथवा धात्म-विभोर हो जाते थे कि उन्हें उस समय बाहरकी प्रवृत्तिका कुछ भी ध्यान नहीं रहता था-भक्तिरस के अपूर्व उन कमे वे अपना सब कुछ भूल जाते थे-भगवद् भक्ति करते हुए उनकी काई भी भावना उसके द्वारा धनादिकी प्राप्ति अथवा ऐहिक भोगोपभोगोंकी पूर्ति रूप मनोकामना को पूर्ण करने की नहीं होती थी, इसमें उनकी कि निष्काम कही जाती थी । कविकी भक्तिका एक मात्र लक्ष्य सांसारिक 'विकलपता' को मिटाने और भमन्युर्योकी प्राप्ति का था। उनकी यह हद श्रद्धा थी कि उस वीतरागी जिनेंद्रकी दिव्य मूर्तिका दर्शन करनेसे अम्म-जन्मान्तरोक अशुभ कर्मोंका ऋण (कर्जा) शीघ्र चुक जाता है-वह विनष्ट हो जाता है और सि परम आनन्द परिपूर्ण हो जाता है। यद्यपि मिनेन्द्रका गुणानुवाद प्रत्यन्त गम्भीर है, वह बच्चनोंसे नहीं कहा जा सकता, और जिसके सुनने अवधारण करने अथवा श्रद्धा करनेसे यह श्रीवारमा कमौके फन्दसे छूट जाता है। कवि स्वयं कहते है कि जिगुया रूप सनके सेवन से अब मेरी यह सांसारिक 'विरा' दूर हो गई है। अबतक मुझे मोंकी परख (पहिचान) व आई थी तब तक मैं एक कोड़ी