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________________ २५८ अनेकान्त वर्ष ११ मैं न विगार कियौ इनको, संयोगको कोदयका विपाक समझते थे, उसमें अपनी विन कारण पाय भए अरि आई। कत व बुद्धि और प्रक्रियारूप मिथ्या वामनाको मात पिता तुम हो जनके, किसी प्रकारका कोई स्थान नहीं देते थे । इसी कारण तुम छांदि फिराद करौं कहां जाई। वे व्यर्थकी अशान्तिसे बच जाते थे। साथ ही प्रतस्वपारहिं बार पुकारत हौं, परिणति और मोह-ममतासे अपनेको बाये रखने मे हमरी विनती सुनिये जिनराई ॥ सदा सावधान रहते थे-कमी असावधान थवा प्रमादी x x x x नहीं होते थे। वे स्वयं सोचते और विचारते थे कि है सो तुमसौं कहि दूरि करचौ प्रभु, मात्मन् ! जब तेरी प्टि जागृत हो जायगी, उस जानत हो तुम पीर पराई । समय कालनधि, सत्संग निविकलपता, और गुरु उपदेश मैं इनिकौ परसंग कियौ, सभी सुलभ हो जायेंगे। विषय-कायोंकी बलक मुरमा जावेगी, वह फिर तुझे अपनी ओर आकृष्ट करने में समर्थ दिनहू दिन आवत मोहि बुराई । न हो सकेगी। मनकी गति स्थिर हो जानेसे परिणामोंज्ञानमहानिधि लूट लियौ, की स्थिरता हो जावेगी | तब मोहरूपी अग्नि प्रज्वलित इन रंक कियौ हर भांतिहि राई। होगी और उसमें विभाव भावरूप वह सब ईधन भस्म हो बारहिं बार पुकारत हों जनकी, जावेगा। तेरे अन्तर्घटमे विवेकज्ञानकी रुचि बढ़ेगी। विनती सुनिये जिनराई ॥ फिर मन पर - परिणति में सभी नहीं होगा और तू सब अध्यात्म-राग तरहसे समर्थ होकर अनुभव रूपी रंगमें रंग जायगा। काववर सध्यात्म-शास्त्रोंके कोरे पंडितहीन थे किन्तु तथा सम्यग्दर्शन ज्ञान और चारित्ररूप मोषमार्ग में प्रवृत्त उन्होंने उन अध्यात्मशास्त्रोंके अध्ययन मनन एवं चिंतन- होगा। और इस तरह तुझे फिर कभी पर उगम सकेगा। से जो कुछ भी विवेक ज्ञान प्राप्त किया था, वे उसे रह हे देवीदास । अब तू स्वाधीन पन, और निजानन्दरसका महामें परिणत करमेके साथ-साथ प्रशिकरूपसे अपने पान कर सन्तुष्ट हो। यही आशय निम्न पदमें ग्यच. जीवनमें तदनुकूल बन करनेका भी प्रयत्न करते थे। किया गया हैसुनांचे उनका जीवन अध्यात्मरससे सराबोर रहता था। जब तेरी अन्तर्दृष्टि जगेगी ।।टेका। बेइ वस्तुका वियोग होनेपर भी कायरोंकी भांति काललबधि आवत सुनिकट जब, दिखगीर अथवा दुःखी नहीं होते थे, किन्तु वस्तुस्थितिका _____ सत्सति उपदेश गहेगो । परावर चिन्सन करते हुए कमजोरीमे जो कुछ भी थोडेसे अल्पकाल महि निरविकलप हो, समपके लिए दुखि अथवा कष्टका अनुभव होता था वे गुरु उपदेश लगेगो ॥॥ उसे अपनी कमजोरी समझते थे। और उसे दूर करनेके विषय-कपाय सहज मुरझावत, लिये वस्तुस्वरूपका चिन्तनकर स्काल उससे मुक्त थिर होय मनु न हगेगो। होत सुथिर परिनामनिकी गति, होनेका प्रयत्न करते थे। इन्ही सब विचारोंसे उनकी मोह-अनल तब शीघ्र दगेगो।। गुमशता और विवेकका परिचय मिलता है। वे भारम बढ़त विवेक सुरुचि घट अंतर, ध्याममें इतने सालीन हो जाते थे कि उन्हें बाहरकी पर-परिनति न पगेगो । क्रियाका कुछ भी पता नहीं चलता था। किसोकी समरथ हो करि है निज कारज, निन्दा और प्रशंसाम वे कमी भाग महीं देते थे। यदि निज अनुभव रंग रगेगो ॥३॥ देवयोगसे कोई ऐसा अवसर था भी जाता था बुद्धि दर्शन-ज्ञान-चरन शिव मारग. पूर्वक इसमें प्रवृत्त नहीं होते थे। और न अपनी शान्ति जिहिं रस-रीति खगेगो। भंग करनेका कोई उपक्रमही करते थे। वे कमोदयजन्य देवियदास कहत तब लगि है, क्रियामों हारा होनेवाले इष्ट-मनिष्ट पदार्थोक वियोग जिय तुम पर न ठगेगो॥४॥
SR No.538011
Book TitleAnekant 1952 Book 11 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1952
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size29 MB
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