SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 316
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ किरण ७-८] बुन्देलखण्डके कविवर देवीदास [२७९ वह स्वानुभाव रूप प्रात्मरस अत्यन्त मधुर और स्वादत फिर न उवीठौ । सुखद है, परन्तु उस सहज रसका स्वाद स्थाद्वाद ग्सना देवियदास निरक्षर स्वारथ, के बिना नहीं हो सकता। जब तक मारमा अपनी विभाव. अन्तरके हग दीठौ ॥४॥ रूप सर्वया एकान्तदृष्टिको छोड़कर अनेकान्तरटिको कविवर कहते है कि वह निर्मक निजरस मैने बस जीवन में नहीं अपना लेता, तब तक वह उस स्वानुभव लिया है, अब मुझे किसी भी कार्य करने की अभिलाषा रूप सुधारसका पान करने में समर्थ नहीं हो पाता। महीं है। अब मैंने सम्पग्दर्शन ज्ञान चरण रूप मुक्तिके उस वह स्वानुभव पूर्व रसायम है, जिसका स्वाद अपूर्व और मूल वृक्षका पता लगा लिया है जहापर राद्वष रूपमाश्चर्यजनक है, उसके चखते ही संसारके सभी स्वाद पर परिनमन हेप जानकर स्वाग दिये जाते है-प्रथवा वे फीके ( नारस ) पर जाते हैं। जिन्होंने उस निजानन्दरस- स्वयं छूट जाते हैं। और शुद्ध उपयोगकी वहप म धारा का पान कर लिया है उन्हें इन्द्र नरेन्द्रादिके वे पर:धीन उपादेय हो जाती है। मनको दौर तो पखाकाके समान इन्द्रियजन्य चाणक सुख सुखद प्रतीत नहीं होते-वह चल और अस्थिर है और उसकी स्थिति समद्रके मध्य जीव सरागमवस्थामें उनका उपभोग करता हुमा भी जहाज पर बैठे हुए उस पलीके समान है। मैंने बामने कभी सुखी नहीं हुमा और न हो सकता है। क्योंकि वह योग्यको जान लिया और देखने योग्यको देख लिया। पासे मिश्रित कर्मविपाक रस है, स्वानुभव नहीं, स्वानुभव अब उस अन्तिम मंजिल अथवा लषय पर पहुँचनेकी देर तो परके मिश्रणसे सर्वथा प्रतीत है, उस निजानन्द रूप है। जैसा कि कवि निम्न पदसे प्रकट है:परम सुधारसके अनुभव या स्पर्श होते ही जन्म-जरा- निज निरमल रस चाखा, मरण रूप दुःख दूर हो जाते हैं। वह रस सरस होते हुए ___ जब वह निज निरमल रस चाखा । भी वचनातीत है, परन्तु उसका दर्शन या अनुभव अन्त- करनेकी सुकछु अब मोकी, 'टिके जागृत हुए बिना नहीं हो सकता। अतः उसे और नहीं अभिलाषा टेक।। प्राप्त करना ही दे पात्मन् तेरा परम बचय है। कविवर सूझ परे पर जोग आदि पर, कहते है: मन सु अवर तन भाषा । श्रातमरस अति मीठो, दर्शन-ज्ञान-चरन समकित जुत, साधो आतम-रस अति मीठो। मूल मुकति-तरु पाखा ॥१॥ म्याद्वाद रसना बिन जाको, राग-द्वेष मोहादि परिनमन, मिलत न स्वाद गरीठौ ।।टेक। हेय रूपकरि नाखा । पीवत हो सरस मुख, सुथिर शुद्ध उपयोग उपादेय, सो पुनि बहुरिन उलटि पनीठौ । परम धरम उर राखागा अचिरज रूप अनूप अपुरव, मनकी दौर अनादि निधन म, जा सम और न ईठो॥१। जैसे अथिर पताखा (का)। तिन उत्कृष्ट सुरस चाखत ही, सो जिहाज पंछी समकी थिर, मिथ्यामत दे पीठो । जिम दरपनमें ताखा ||शा तिन्हिको इन्द्र नरेन्द्र आदि सुख, जाननहार हतौ सोई जान्यौ, सो सब लगत न सीठी ॥२॥ देखनहार सु देखा। आनन्द कन्द सुछन्द होय करि,. देवियदास कहत समय इक हो, भुगतनहार पटीठौ । होय चुक्यो सब साका । ४॥ परम गुधासु समै इक परसत, जन्म - जरा दिन चीठौ।।।। वचन अतीति सुनीति अगोचर, कविवर विद्वान होने के साथ-साथ पाम सन्तोषी मी अन्य-परिचय
SR No.538011
Book TitleAnekant 1952 Book 11 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1952
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy