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अनेकान्त
भीतर बैठे भगवानका जो अपमान किया है वह हमें युगों तक अज्ञानके अंधकार में रखनेके लिए पर्याप्त है । इससे महावीरका क्या बिगड़ा, बिगड़ा तो हमारा ही कि हम सुस्त पड़ गये, कोई प्रगति नहीं कर सके और ज्ञानकी, सत्यकी खोजमें दुनियाकी प्रगतिमें पिछड़ गये । महावीर तो एक विज्ञानी थे, अपने जीवनमें जितना प्रयोग वे कर सके कर गये और बता गये । उसे आगे बढ़ाना हमारा काम था पर हम निकले शब्दोंसे चिपकने बाले । और यही कारण है कि हम दूसरा महावीर दुनियाको अबतक नहीं दे सके, दे नही सकते । बहुत ही कुछ हुआ तो आजकी वैज्ञानिक शोध-खोज और प्रगतिकी चर्चा चलने पर मोहवश इतना कहकर शान्त हो जाते है कि यह सारी प्रगति हमारे शास्त्रोकी देन है, हमारे सिद्धांतमें यह सब है । ये भोले भाई यह नहीं जानते कि किस विज्ञानीने कौन-सी चीज दी है और वह इनका सिद्धांत पढ़ने कहा गया होगा और कौन इतना प्रगतिशील था जिसने अपना शास्त्र उसके हाथमें थमाया होगा । जैनोंने तो शास्त्रोंको भी मूर्तिकी तरह पूजाकी वस्तु बनाया और उन्हें जनतातक लानेसे इन्कार किया है ।
वर्ष ११
साहब, संसारमें रहकर सच बोलना बड़ा कठिन है।' ओर ताज्जुब तो यह होता है कि यह छल- फरेब धर्मके नामपर भी चलता है और उसका बखान भी शानके साथ किया जाता है ।
अधिक कुछ नही कहना चाहता, केवल इतना ही कहना चाहता हूं कि जिन लोगोंने महावीरको किसी कुंद और बेहवाकी इमारतमें बन्द कर दिया है और जो जाति, रूढ़ि तथा खानेपीनेके कोरे आडम्बरमें फंसे हुए है उनके हाथों न उनकी खैर है, न सर्वोदयतीर्थंकी और न वे सर्वोदयतीर्थंके अनुयायी कहलानेके योग्य है । कौन ऐसा है जो मन्दिरों परसे ताले उठवा दे, कौन हैं ऐसा जो मुंहपरसे कपड़ा हटा दे, कौन है ऐसा जो अपराधीपर भी प्यारकी निगाह रखे, कौन है ऐसा जो दूसरेको अधार्मिक कहना छोड़ दे और कौन है ऐसा जो अपने ही आचार-विचारोंकी बड़ाई करना छोड़ दे ? हमारी स्थिति उस रोगी जैसी है जो वैद्यके नुस्खेको तकियेके नीचे संवारकर रखता है, उसकी प्रशंसा करता है, उसे नमस्कार करता है, पर उसमें लिखी दवाइयोंको मिला कर पी नही सकता । हम मन्दिरमें जाते हैं, मूर्तिके आगे माथा रगड़ते हैं, उसके गुणोंका गान करते हैं, नाचते गाते हैं, पर बाहर भाकर दुनियादारीके फरेब भरे चक्करमें फँस जाते हैं और किसीके ताना मारनेपर झट कह देते हैं कि 'क्या करें
असल में धर्म या तो ज्ञानकी चीज है या बहादुरोंकी । दुर्भाग्यसे वह पड़ गया है कायरोंके हाथमें । कायर तो इसे अपनी दृष्टिसे ही देखेगा और ग्रहण करेगा । कायरमें होती है भयकी भावना । भय एक ऐसा अस्त्र है जो उसे काबू में ला सकता है । जब धर्म कायरके पल्ले पड़ गया तब ज्ञानीको तो अपनी गुजर-बसर करनी ही थी और उसने अपना रास्ता कायरको और डराकर निकाल लिया । उसने स्वर्गका सब्ज बाग दिखाया और नरककी यातनाका चित्र खड़ा किया । लोभ और भयके आधारपर धर्मका झंडा कायरके हाथ सौंप दिया। यह तो समन्तभद्र जैसे महान ज्ञानी ही कह सकते थे कि वे भगवानके अतिशय से प्रभावित नही हैं, कायर कही कह सकता है ? वह नहीं कह सका, इसीलिये तो सैकड़ों तरहके चमत्कार और अतिशय उसकी आंखोंमें नाचने लगे और आज भी वह जो कुछ मन्दिर और धर्मालयमें करता है वह केवल चमत्कारकी ही तो पूजा करता है। एक ज्ञानीकी दृष्टिसे यह सब बच्चोंका खेल ही समझिये । 'चमत्कारको नमस्कार कहावत ही बन गयी है ।
भयमें सर्वोदय भावना नही रह सकती, सर्वोदयकी भावनाके लिये जिस निष्पृहता, स्पष्टता, प्रगतिशीलता और समन्वयशीलताकी जरूरत होती है वह कायरमें कभी हो नही सकती। वह दया करता है तो उसे याद रखनेके लिये, एहसानका पत्थर सिरपर पटककर उसकी दया क्षणमात्रमें अदया बन सकती है । डरपोक तो वह इतना होता है कि कोई गाली देकर उससे भिक्षा ले जाय, सरलतासे वह कौड़ी नहीं देगा। सच यह है कि आजके समाजपर धर्मका भूत सवार है और यह भूत धर्मकी आत्माका भान नही होने देता और आगे भी नही बढ़ने देता ।
मुझे शंका है कि आजकी समाजके लिये सर्वोदयतीर्थं इस पृथ्वीमें जीवित रह सकता है, वह तो स्वर्गकी तरह अचरजकी चीज बन चुका । सर्वोदयका तीर्थं अगर इस पृथ्वी पर कहीं होता तो वह हर गांवके हर मन्दिरमें, हर जातिमें, हर विचारमें और हर प्रवृत्तिमें होता ।