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सर्वोदयतीर्थक नामपर
आकर कहते है कि सारे अवतार, सारे तीर्थकर या सारे व्यर्थका भेदभाव खड़ा करना धर्मका उपहास करना है और बुद्ध हमारे यहीं हुए है। इस देखा-देखीने ही धर्मके असली अधर्म है। रूपको नष्ट कर दिया है और उसका वह रूप रह गया है धर्मकी उन्नतिको हमने संख्या से तोलना चाहा। धर्म जिसको लेकर बुद्धि दिवालिये प्रेत पर गिद्धकी तरह को संख्यासे कभी तोला नहीं जा सकता और जहां तोला झपटते है।
जाता है वहां निश्चित समझिये कि धर्मका असली तत्व ___ महावीर जंगलमें गये और आदमीके बच्चेसे कहा खतरेमें होता है। पर इसमें भी सर्वोदयतीर्थके अनुयायी कि प्रगति कर, उस सडांधसे निकल जहां अहंताकी असफल ही रहे-वे सब जाति-मर्यादा और कुलाचारमें ही बिना खिड़कीकी इमारतमें खड़े-खड़े तेरा दम घुट रहा है। अटके रहे और जिसने जरा उनकी तथाकथित मर्यादाका वीरने तो घर ही क्या तन भी छोड़ा और अपना नाम भी भंग किया कि उन्होने उसे जातिसे बाहर कर दिया। मिटाकर चले गये। शरीरका एक कण भी पृथ्वीवालोंके जैनधर्मको माननेवाली अधिकांश जातियोंका इतिहास यह लिये नही छोड़ा क्योंकि उसको लेकर भी न जाने कितनी स्पष्ट बोल रहा है कि जोड़ने और मिलानेका काम कमी कल्पनाएं जोड़ी जा सकती थीं, लेकिन भक्त ही तो होते हैं हुआ ही नहीं, जो भी कुछ हुआ है वह तोड़ने और अपने नेता की दुर्दशा करनेवाले । महावीरका भी यही हाल फेंकनेका ही हुआ । अगर हमने सर्वोदयको समझा हुआ। महावीरके नाम पर ऐसी ऐसी इमारतें खड़ी की गयी होता तो यह कैसे हो सकता था? जिन्होंने समझा वे अलग जिनमें जाति-संप्रदाय आदिके कितने ही विभाग हो गये, पड़ गये और अलग ही खत्म हो गये। यह कैसी विडम्बना पर हवाके खुलकर बहनेके लिये खिड़की एक भी नहीं है कि जीवन्त महावीरके पास तो पशु-पक्षी तक पहुंच रखी गयी। सर्वोदयके हिमायती ही आज स्वार्थोदयी सकते थे, पर उनकी मूर्तिके पास बिना टिकट लिये आदमी बन गये है। अगर आज कही फिरसे महावीरका अवतरण भी नहीं पहुंच सकता ! हो जाय और वे देखें कि उनका नाम लेनेवाले क्या क्या कालेजका कोई विद्यार्थी प्रोफेसरसे सीखते समय क्या करते है तो असंभव नही, वे उस सबको मिटा दें जो कुछ यह समझ कर सीखता है कि प्रोफेसरका ज्ञान ही परिपूर्ण उन्होंने कहा था।
है और उसके आगे वह नहीं बढ़ सकेगा? मेरे खयालसे धर्म अपने आपमें बुरा नहीं होता, उसमें बुराई तो कोई विद्यार्थी ऐसा नही हो सकता और जो ऐसा होगा तब आती है जब उसे लोकोत्तर या आदमीकी पहुंचके वह कालेजमें प्रविष्ट ही नही हो सकता । इसी बाहर का बना दिया जाता है, और यह चीज बिना अनुकरणके तरह महावीर एक प्रोफेसर थे जिन्होने एक रास्ता बताया नहीं होती। महावीरके साथ भी प्रायः ऐसा ही हुआ है, और चले गये । अब इसका अर्थ यह तो नहीं कि जो कुछ वे आदमी ही नहीं रह गये। जब कि उन्होंने स्वयं बताया कि उन्होंने बताया या वे परिस्थितियोंके अनुरूप बता सके आदमी ही सारी शक्तियोंका भंडार है । इतना उतना ही परिपूर्ण है, उसमें कुछ फेरबदल नहीं हो सकता। ही नहीं कुछ लोग उनपर अपना अधिकार भी जमा बैठे जो तरीका उन्होंने बताया वह साफ था, बढ़िया था उसमें कि अमुक वर्ग और श्रेणीके अतिरिक्त कोई दूसरा उनकी किसी प्रकारका आवरण और भेद नहीं था, वह प्रगतिशील मूर्तिको स्पर्श भी नहीं कर सकता। यह इस महापुरुषका या । हमारा काम था कि हम खुले मनसे उस रास्तेपर बढ़ते, बादर है या अपमान? समन्तभद्रने उनके धर्मको या उपदेशको अपनी बुद्धिका उपयोग करते,प्रगति करते और उस चीजको सर्वोदयतीर्थ यों ही नहीं कहा था। आजकी स्थितिमें तो प्राप्त करते जो आजके लिये सर्वोत्कृष्ट है। पर ऐसा हुमा उसे बनोदयतीर्थ भी नहीं कह सकते। जो सत्य दूसरेके छूनेसे कहां ? हम तो उस विद्यार्थीकी तरह ही रहे जो यह मानता असत्य बन जाता है या अपवित्र बन जाता है वह सत्य ही रहा कि उसके अध्यापकने जो कुछ बताया उसके आगे नहीं है, यह बात हमारे ध्यानमें तब तक नही आ उस के लिये कोई रास्ता नहीं है, वहीं उसकी सीमा है, सकती जब तक हम यह न समझ लें कि आदमी-आदमीमें महावीरको अपनी कमजोरीकी सीमा में बांधकर हमने अपने