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सर्वोदयतार्थके नामपर
[श्री जमनालाल साहित्यरत्न ] आचार्य समन्तभद्रने वीरके शासनको सर्वोदयतीर्थ समन्तभद्रने दो हजार बरस पहले यह शब्द प्रयुक्त किया, कहा है, जिस तीर्थमें सबके उदयकी संभावना हो वह सर्वोदय- पर आज इसकी पूछ क्यों हो रही है ? कारण का तीर्थ, वीरका शासन वह जो वीरने कहा, इस तरह हम स्पष्ट है कि रस्किनके इस शब्दको गांधीजीने कह सकते है कि वीरने जो कुछ कहा है वह सबके उदयके राष्ट्रव्यापी महत्व दिया और अब सर्वोदयसमाज स्थापित लिये कहा और उनका कहना इतना साफ स्पष्ट और यथार्थ हो गया, जैनोंने अपने दबे शब्दको उठानेका यह अच्छा था कि उसे तीर्थ कहा गया है ।
मौका देखा और उसके विविध उपाय होने लगे। अचरज वीरने किसी धर्मविशेषकी स्थापना की हो ऐसा नही तो यह है कि इस सीधे-सादे शब्दको इतिहासकी नजरोंसे लगता। उन्होंने किसी ग्रंथको या परम्पराको प्रमाण मानकर देखा जाने लगा और इसके लिये शक्ति लगाई जाने लगी कुछ कहा है ऐसा भी नही लगता। उन्होंने जो कुछ कहा है कि इस शब्दका प्रयोग सर्वप्रथम किसने किया । अपने अनुभवसे कहा है, जनतासे कहा है और हम इस तरह उस शब्दकी बाहरी चीर-फाड़में लग गये जनताको भाषामें कहा है। जिस तरह आजके विद्वान
और भावनासे दूर पड़ गये। हमें यह जाननेकी शायद चिन्ता मागम-प्रमाण और वेद-प्रमाणकी दुहाई देकर अपने वचनोंकी नही कि उस शब्दका मूल अर्थ क्या है और किसने किस अर्थमें सत्यता पर प्रामाणिकताकी मोहर लगाना चाहते है
उसका प्रयोग किया है। ऐसी ही शोष-खोज हम सदा करते वैसा उन्होंने कुछ नहीं किया। ऐसा करके आजके विद्वान तो रहे है। जैन बड़े खुश है, यह सिद्ध करनेमें कि सारे तीर्थकर अपनी सत्यता और विद्वताको प्रायः संदिग्धताकी कोटिमें उन्हीके यहां हुए है, वे उनकी अपनी थाथी है । और वे हए रख रहें हैं। उन्हें शायद अपने वचनों पर, अनुभवों पर इसलिये हैं कि जबजब समाजमें बुराइयां फैल गई है, स्वयं ही इतना विश्वास नहीं कि वे जो कुछ कह रहे पापाचार बढ़ गया है, तबतब उसे दूर कर दिया जाय । है वह पूर्णत: ठीक है। महावीरके आगे वेद मौजूद था, वे चौबीस बार तीर्थकर हुए और हर बार उन्होंने समाजमेंसे उसके पाठी थे, उसका उन्हें अच्छा ज्ञान था। पर उन्होंने बुराईको दूर करनेका प्रयत्ल किया। पर हर बार गन्दगी उसका कहीं जिक्र नहीं किया, किसी शास्त्रका भी उल्लेख बढ़ती गयी और तीर्थकर भी पैदा होते गए। अगर ऐसा ही नहीं किया। उन्होंने प्राचीन शब्दोंके अर्थोको अपने हमारा समाज है कि कितना ही उपदेश देनेपर भी बुराई और अनुभवसे नया रूप दिया और उनकी वाणीमें इतना बल था पापाचार समाप्त नही हो सकता तो इससे अधिक शर्मकी कि जनताने उसे स्वीकार भी किया। इतना ही क्यों, स्वामी बात और क्या हो सकती है? स्कूल में एक लड़का वह होता है रामतीर्थने स्वयं कहा कि वे स्वयं ज़िन्दा वेद है मुर्दा वेद की जो अध्यापककी बातको एकबारके कहनेपर समझ जाता है तरफ क्यों देखा जाय !
और फिर कोई भूल नहीं करता, अपना काम बराबर धर्ममें देखा-देखी खूब चलती है, पहले भी चली है, करता जाता है, और एक वह होता है जो बारबार कहनेपर, आज भी चल रही है। हिंदुओंने अपने यहां अवतार मारने पर भी नहीं समझता और समझता भी है तो उतनी माने तो बौदोंने अपने यहां तथागत माने और जैनोंने ही देरके लिये जितनी देर अध्यापक उपस्थित रहता है। तीर्थकर मान लिये। मैं यहां नये और पुरानेके झमेलेमें नहीं स्पष्ट है कि दोनोंमें दूसरा लड़का मूर्ख है, नालायक है। पड़ना चाहता, इस सर्वोदयको ही ले लीजिये, यह ठीक कि यही हाल उन धर्मात्माओंका समझिए जो अपनी शानमें