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अनेकान्त
[किरण १०
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है, और इसलिये इस पदके द्वारा जब सचित्त वस्तुसे ढके है, न कि अचित्त वस्तुओंका-भले ही वे संस्कार-वारा हुए तथा सचित्त वस्तुपर रक्खे हुए अचित्त पदार्थके दाम- अचित क्यों न हुई हों; जैसे हरी तोरीका शाक और गन्ने को दोषल्प बतलाया है तब इससे यह स्पष्ट जाना जाता था सन्तरेका रस । ॐ है कि अनगार मुनियों तथा अन्य सचित्तस्यागी संयमियों
-युगवीर को माहारादिकके दानमें सचित्त वस्तुओंका देना निषिद्ध --
* समीचीन धर्मशास्त्रके अप्रकाशित भाष्यसे ।
हेमराज गोदीका और प्रवचनसारका पद्यानुवाद
___ . (पं० परमानन्द जैन शास्त्री) हिन्दी जैन साहित्यके कवियोंका अभी तक जो इति- अपना कार्य सुचारु रूपसे सम्पन कर रही थीं, इससे जहाँ बत संकलित हुभा है उसमें बहुतसे कवियोंका इतिवृत्त स्थानीय लोगोंका जैनधर्मके प्रति प्रेम होताथा यहाँ बाहरसे संकलित नहीं हो सका । उसका प्रधान कारण तद्विषयक
प्रागन्तुक सज्जनोंको धर्मोपदेशका यथेष्ट लाभ भी मिलता अन्वेषणकी कमी है। अन्य भाषाओं की तरह हिन्दी भाषामें था। इन शैलियोंके प्रभावसे अनेक जैनेतर व्यक्ति भी जैन जैनियोंका बहुत साहित्य रचा गया है, जिस पर अनेक धर्मकी शरणमें प्राप्त हुए थे। इन शैलियोंके सभी सदस्य तुलनात्मक और समालोचनात्मक निबन्धोंके लिखे जानेकी
धार्मिक और वात्सल्य गुणसे युक्त होते थे । उनका दूसरोंके आवश्यकता है। प्रस्तु, आज हिन्दी जैन साहित्यके एक
प्रति आदर और प्रेम भाव रहा करता था, जो जनताको से अपरिचित कविका परिचय देनेका उपक्रम कर रहा हूँ अपनी मोर पाक में माता था। जिसके नाम और कृतिसे अधिकांश लोग अपरिचित ही हैं।
उन दिनों कामाकी उस शैलीके कविवर हेमराज भी उनका नाम हेमराज, जाति खंडेलवाल और गोत्र भावसा एक सदस्य थे. जो निरन्तर सैद्धान्तिक ग्रन्थोंका पठन-पाठन है, परन्तु उनका म्येक 'गोदीका' कहा जाता है। यह पहले
करते हुए तत्वचर्चाके रसमें निमग्न रहते थे। कामाकी सांगानेर (जयपुर) के रहने वाले थे, उस समय वहाँ
इस शैली में जिन दिनों प्राचार्य कुन्दकुन्दके प्रवचनसारका राजा सवाई जयसिंह राज्य करते थे। बादमें वे कारणवश
वाचन हो रहा था उन दिनों प्राचार्य अमृतचन्द्रकी संस्कृत सांगानेरसे कामा चले गये थे, जो कि भरतपुर स्टेटका एक
टीकाके अनुसार पांडे हेमराजकी बनाई हुई हिन्दी टीका
कानमार कस्बा है। कामामें उस समय कायस्थ जातिके गजसिंह
___ का काफी प्रचार था । जैसाकि कविके निम्न पद्योंसे नामक एक सज्जन दीवान थे, जो बड़े ही चतुर और राज- स्पष्ट है:नीतिमें दर थे। उन दिनों कामामें अध्यात्मप्रेमी सज्जनों अध्यातम शैली सहित बनी सभा सहधर्म । की एक सभा अथवा शैली थी, जिसमें स्थानीय अनेक चरचा प्रवचन सारकी करे सबै लहि ममं ॥ सजन भाग लेते थे। इस शैलीका प्रधान लक्ष्य अध्यात्म- अरचा प्ररहंत देवकी सेवा गुरु निरग्रन्थ । प्रन्योंका पठन-पाठन करना और तत्वचर्चा-बारा उलझी दया धर्म उर आचरें, पंचमगतिको पन्थ ॥ हुई गुस्थियोंको सुखमा कर जैनधर्म प्रचारके साथ प्रारम- ऐसी सभा शुरै दिन राती, अध्यातम चर्चा रस पाती। उचति करना था। उस समय भारतमें जहाँ वहाँ इस जब उपदेश सबनिकौलीयो, प्रवचन कवित बंध तब कीयो। प्रकारको अध्यात्मशैलियाँ विद्यमान थीं जिनसे जनता छप्पय-कुन्दकुन्द मुनिराज प्रथम माथा बंध कीनो। पाल्मबोध प्राप्त करनेका प्रयत्न करती थी। इनके प्रभाव गरभित प्ररथ अपार नाम प्रवचन तिन्ह दीनो। एवं प्रयत्नसे जहाँ बोकहदयों में जैन धर्मके प्रति आस्था अमृतचन्द पुनि भबे ग्यानगुन अधिक विराजत ।
और प्रेम उत्पन होता था वहाँ अनेकोंका स्थितिकरण भी पांडे हेमराजने प्रवचनसारकी यह टीका मागरामें होता था उनकी चल श्रद्धा सुद्धता पाजाती थी। उस शाहजहाँक राज्यकालमें विक्रम संवत् १७०६ को माघ समय जयपुर, देहली, और पागरामें ऐसी शैलियाँ भपना शुक्ला पंचमी शनिवारके दिन समास की थी।
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