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________________ किरण १.] हमराज गोदोका और प्रवचनसारका पद्यानुवाद [३६ गाथा गून विचार संस्कृत टीका साजित। ग्रन्धका कविने जो पचानुवाद करनेका प्रयत्न किया है वह टीका माहि जो अरथ भनि विना विवुध को ना बहै। उसमें कहाँ तक सफल हो सका है उसीके समबमें कुछ तब हेमराज भाषा वचन रचित बाबबुधि सरदहै। दिग्दर्शन करना है। यहाँ पाठकोंकी जिज्ञासापूर्तिके लिये पारे हेमराज कृत टीका, पढ़त बढत सबका हित नीका। कुछ गाथाचांका पयानुवाद नीचे दिया जाता है, जिससे गोपिमरथ परगट करि दीन्हों, सरलवचनिका रचि सुखल्लीन्हों पाठक कविकी, कविता और उसके प्रयत्नकी सफलताका प्रवचनसारके पठन-पाठनसे शैलीके लोगोंकी यह विचार करनेमें समर्थ हो सकें। भावना हुई कि इसका पद्यानुवाद हो जाय तो लोग इसको धम्मेण परिणादप्पा अप्पा अदि सु-संपयोगजुदो। सहज ही याद कर सकेंगे। इसी प्रकारका भाव कविके पावदिणिग्वाण-सुहं सुहोवजुतो व सग्ग-सुहं ॥१॥ हृदयमें भी जागृत हुमा । फलतः प्रवचनसारका पचानुवाद इस गाथामें बतलाया गया है कि जब धर्मस्वरूप कविने करना शुरू किया और उसे संवत् १७२४ में बना परिणत यह प्रारमा शुद्ध उपयोगसे युक्त होता है तब मोर कर समाक्ष किया। जैसा कि ग्रन्थ प्रशस्तिके निम्न पचसे सुख प्राप्त करता है। किन्तु जब वह धर्मपरिणतिके साथ प्रकट है: शुभोपयोगमें विचरण करता हैगवईक दान, पूजा, प्राषाढमास दुतिया धवल पुष्प नक्षत्र गुरुवार धुव । प्रत, संयमादि रूप भावों में प्रवृत्त होता है तब उसके फल स्वरूप वह स्वर्गादिक सुखोंका पात्र बनता है-यह विषयसत्रहसौ चौवीस संवत शुभ दिन अरु शुभ घड़ी। कषाय रूप सराम मावोंमें प्रवृत्त होनेके कारण, अग्निसे कीनो प्रन्थ सुधीस दोष देखि कीजहु खिमा ॥ तपे हुए घीसे शरीर सिंचन करनेसे समुत्पत्र देह-वाहके प्रवचनसारंकी इस टीकामें कविने, कवित्त, अरिल्लचंद, समान इन्द्रिय-सुखोंको प्राप्त करता है। यही सब भाव वेसरी, पद्धती, रोबक, चौपई, दोहा, गीता, कुंडलिया, टीकाकारने अपने पोंमें व्यक्त किया है। . मरहठा, एप्पय, और सबैया तेईसा आदि छन्दों का प्रयोग दोहा-शुन्द स्वरूपाचरगत, पावत सुख निरवान । किया है जिनके कुल पद्योंकी संख्या ७२५ है। जिनका शुभोपयोगी श्रोत्मा, स्वर्गादिक फल जान । व्यौरा कविके शब्दों में निम्न प्रकार है: '. वेसरिछंद-विषयकवायीजीवसरागी, कर्मबन्धकीपरिणतिजागी कवित्त तहाँशुद्धउपयोगविदारी,ताते विविधभांतिसंसारी उनसठ कवित्त, अरिष्ल बत्तीस सुबेसरि छंद निवै पर तीन। तपत घीव सींचत नर कोई, उपजत दाह शान्ति नहि होई । दस पजरी चारि रोडक मानि, सब चारीस चौपई कीन। त्योंही शुभउपयोग दुर माने, देव-विभूति तनक सुरूमाने । दोहा कन्द तीनसै साठा तामें एक कीजिये हीन । सुभोपयोगी सकति मुनिराई, इंद्रियाधीन स्वर्ग सुखदाई। गीता सात पाठ कुडलिया एक मरहठा मिनहु प्रवीन ॥ छिनमें होई जाय विनमा है, शुखाचरण पुरुप क्यों चाहै। छप्पय-बाईसा मनि चारि पांचसौ चौईसा कहिये। अइसयमाद समुत्यं विषयातीदं अपोवम मणतं। एकतीसा बत्तीसा एक पचीसौं लहिये । अव्वुच्छिएणं च सुहं शुद्ध वभोगप्पसिद्धाणं ॥११२॥ छप्पय गनि तेईस छंद फुनि साम बिलंवित । इस गाथामें शुद्धोपयोगका फल निर्दिष्ट करते हुए जानहु दस बर सात सकल तेईसा परमित ॥ बतलाया गया है कि परमवीतराग रूप सम्यचरित्रसे सोरठा-वंद तेतीस सब सात शतक पचवीप हुए। निष्पक्ष रहन्त सिद्धोंको जो सुख प्रास है यह इन्द्रादिके प्रवचनसार एक सैद्धान्तिक ग्रन्थ है जिसमें जैनाचारके इन्द्रियजन्य सुखोंसे अपूर्व पाश्चर्यकारक, पंचेन्द्रियों के साथ तत्वज्ञानका अच्छा विवेचन किया गया है। इसमें विषयोंसे रहित, अनुपम, पास्मोत्य, अनन्त (अविनाशी) प्राचार्य कुन्दकुन्दकी दार्शनिक दृष्टिका दर्शन होता है। श्रब्युच्छिन्न (वाधारहित ) है-उस सुखामृतके सामने इसका दूसरा अधिकार 'ज्ञेवाधिकार' नामका है, जिसमें संसारके सभी सुख हेच एवं दुःखद प्रतीत होते हैं, क्योंकि शेयतत्वोंका सुन्दर विवेचन किया गया है। कथन-शैली वे सुखाभास है। इसी भावको कविने निम्न पथों में अंकित बढ़ी ही प्रौढ़ तथा गम्भीर एवं संचित है। ऐसे कठिन किया है: सरि छंद निवा । त्याहा की सकति मुनि
SR No.538011
Book TitleAnekant 1952 Book 11 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1952
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size29 MB
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