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किरण १० ]
"यथा वैयावृत्त्यं विदधता चतुविधं दानं दातव्यं तथा पूजाविधानमपि कर्तव्यमित्याह "
अर्हम्वदेव सुधा, तृषा तथा रोग-शोकादिकसे विमुक्त होते हैं—भोजनादिक नहीं लेते, इससे उनके प्रति चहारादिके दानका व्यवहार बनता भी नहीं । और इसलिए देवाधिदेवके पूजनको दान समझना समुचित प्रतीत नहीं होता ।
यहां पूजाके किसी रूपविशेषका निर्देश नहीं किया गया। पूजाका सर्वथा कोई एक रूप बनता भी नहीं। पूजा पूज्यके प्रति चादर-सरकाररूप प्रवृत्तिका नाम है और आदरसरकारको अपनी अपनी रुचि, शक्ति, भक्ति एवं परिस्थिति के अनुसार अनेक प्रकारसे व्यक्त किया जाता है, इसीसे पूजाका कोई सर्वथा एक रूप नहीं रहता । पूजाका सबसे अच्छा एवं श्रेष्ठरूप पूज्यके अनुकूल वर्तन हे उसके गुणों का अनुसरण है । इसीको पहला स्थान प्राप्त है ।
समन्तभद्र-वचनामृत
दूसरा स्थान तदनुकूलवर्तनकी ओर लेजानेवाले स्तवनादिकका है, जिनके द्वारा पूज्यके पुण्यगुणों का स्मरण करते हुए अपने को पापोंसे सुरक्षित रखकर पवित्र किया जाता है और इस तरह पूज्यके साक्षात् सामने विद्यमान न होते हुए भी अपना श्रेयोमार्ग सुलभ किया जाता है x । पूजाके ये ही दो रूप ग्रंथकार महोदय स्वामी सम
नार्थ तुडविनाशादिविवरसयुतैरन गनैरशुच्यानास्पृष्टेर्गन्धमास्यैर्न हि मृदुशयनै ग्लांनिनिद्रा द्यभावात् आतंकार्तेरभावे तदुपशमनसद्भेप जानर्थ्य तावद् । दीपाऽनर्थक्यवद्वा व्यपगततिमिरे 'दृश्यमाने समस्ते - नृज्यप दा वार्यः
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मतभद्र को सबसे अधिक इष्ट रहे हैं। उन्होंने अपनेको अर्हन्तोंके अनुकूल वर्तनके साँचे में ढाला है और स्तुतिस्तवनादिके वे बड़े ही प्रमीये, उसे श्रात्मविकासके मार्गमें सहायक समझते थे और इसी दृष्टिसे उसमें संज्ञन रहा करते थे न कि किसीकी प्रसन्नता सम्पादन करने तथा उसके द्वारा अपना कोई लौकिक कार्य साधनेके लिये । वे जल-चन्दन- अक्षतादिसे पूजा न करते हुए भी पूजक थे, उनकी द्रव्यपूजा अपने वचन तथा कायको अन्य व्यापारोंसे हटाकर पूज्य के प्रति प्रणामाअलि तथा स्तुति पाठादिके रूपमें एकाग्र करनेमें संनिहित थी । यही प्रायः पुरातनोंअतिप्राचीनों द्वारा की जानेवाली 'द्रव्य पूजा' का उस समय रूप था; जैसा कि श्रमितगति आचार्यके निम्न वाक्यसे भी जाना जाता है:
x जैसा कि स्वयम्भू स्तोत्र के निम्न वाक्योंसे प्रकट है:न पूजयार्थस्त्वयि वीतरागे न निन्दया नाथ विवान्तवैरे । तथापि ते पुण्यगुणस्मृतिर्नः पुनातिचित्तं दुरितां जनेभ्यः ॥
स्तुतिः स्तोतुः साधोः कुशलपरिणामाय स तदा भवेन्मा वा स्तुत्यः फलमपि ततस्तस्य च सतः । किमेवं स्वाधीन्याज्जगति सुलभे श्रायसपथे स्यान्न वा विद्वान्सततमभिपूज्यं नमिजिनम् ॥ यहाँ पहले पचमें प्रयुक्त हुआ 'पूजा' शब्द निन्दाका प्रतिपक्षी होने से 'स्तुति' का वाचक है और दूसरे पथमें प्रयुक्त हुआ। 'स्तुयात्' पद 'अभिपूज्यं' पदके साथमें रहने से 'पूजा' अर्थका द्योतक है।
वचोविग्रह- संकोचो द्रव्यपूजा निगद्यते । तत्र मानस - संकोचो भावपूजा पुरातनैः ॥
-उपासकाचार
ऐसी हालत में स्वामी समन्तभद्रने 'परिचरया' शब्दका जो प्रस्तुत कारिकामें प्रयोग किया है उसका आशय अधिकां में अनुकूल वर्तनके साथ-साथ देवाधिदेवके गुणस्मरणको लिये हुए उनके स्तवनका ही जान पड़ता है। साथ ही इतना जान लेना चाहिये कि देवाधिदेवकी पूजा-सेवा में उनके शासनकी भी पूजा-सेवा सम्मिलित हैं । हरित - पिधान-निधाने हानादराऽस्मरण-मत्सरत्वानि वैयावृत्त्यस्यैते व्यतिक्रमाः पंच कथ्यन्ते || १२१ ॥ -
हरितपिधान - हरे (सच्चित्त, श्रप्रासुक) पत्र-पुष्पादि ant श्रहारादि देय वस्तु देना, हरितनिधान-रे (प्राक-सचित) पत्रादिक पर रक्खी हुई देय वस्तु देना- अनादरत्व - दानादिकमें अनादरका भाव होना अस्मरण - दानादिकी विधिमें भूलका हो जाना, और मत्सरत्व - अन्य दातारों तथा पूजकादिकी प्रशंसाको सहन न करते हुए ईर्षाभावले दानका देना तथा पूजनादिका करना, ये निश्चयसे वैयावृत्यके पाँच अतिचार (दोष) कहे जाते हैं।'
व्याख्या- यहाँ 'हरितपिधाननिधाने' पदमें प्रयुक्त हुआ 'हरित' शब्द सचित्त (सजीव ) अर्थका वाचक हैमात्र हरियाई अथवा हरे रंगके पदार्थका वाचक वह नहीं