SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 391
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३४३ ] अनेकान्त [किरण १० किए हुए हैं और पंचसूना तथा प्रारम्भसे विमुक्त है। ऐसे दानोंसे यावृत्त्य को विज्ञजन चार प्रकारका बतलाते सन्तजनोंकी शुद्ध वैयावृत्ति निःसन्देह गृहस्थोंके पुजीभूत है। अर्थात् आहारदान, औषधिदान, उपकरणदान और पाप-मलको धो डालने में समर्थ है। प्रत्युत इसके, जो साधु आवासदान, ये वैश्यावृत्यके मुख्य चार भेद है।' इन गुण्होंसे रहित है, कषायोंसे पीवित हैं और दम्भादिक- व्याख्या-लोकमें यद्यपि आहारदान, औषधदान, से युक्त हैं उनकी वैग्यावृत्ति अथवा भक्ति ऐसे फलको विद्यादान और अभयदान, ऐसे चार दान अधिक प्रसिद्ध है; नहीं कहती। वे तो पत्थरकी नौकाके समान होते हैं- परन्तु जिन तपस्वियोंको मुख्यतः खचय करके यहां वैय्याप्राप दबते और साथमें दूसरोंको भी ले डूबते हैं। वृष्यके रूपमें दानकी व्यवस्था की गई है उनके लिए ये गोहानापानापना ही चार दान उपयुक्त हैं। उपकरणदानमें शास्त्रका दान आजानेसे विद्यादान सहज ही बनजाता है और भय मक्तः सुन्दररूप स्तवनात्काातस्तपानाप" १२ को वे पहलेसे ही जीते हुए होते हैं, उसमें जो कुछ कसर भक्तेः सुन्दररूपं स्तवनात्कीर्तिस्तपोनिधिषु ।। १५ को _ 'सच्चे तपोनिधि साधुओंमें प्रणामके व्यवहारसे रहती है वह प्रायः प्रावासदानसे पूरी हो जाती है। उच्चगोत्रका, दानके विनियोगसे इन्द्रिय-भोगकी, उपासनाची योजनासे पूजा-प्रतिष्ठाकी, भक्तिके प्रयोगसे सुन्दर रूपकी और स्तुति की सृष्टिमे यश. कीर्तिकी कामदुहि कामदाहिनि परिचिनुयादाहतोनित्यम्११६ सम्प्राप्ति होती है। (वैयावृत्य नामक शिक्षाबतका अनुष्ठान करने वाले व्याख्या यहाँ 'तपोनिधिषु' पदके द्वारा भी उन्हीं श्रावकको) देवाधिदेव (श्री अन्तिदेव) के चरणों में, सच्चे तपक्षियोंका ग्रहण है जिनका उल्लेख पिछली कारि- जो कि वांछित फल को देनेवाले और काम (इच्छा तथा काकी व्याख्यामें किया गया है और जिनके लिये चौथी मदन) को भस्म करनेवाले हैं, नित्य ही आदर-सत्कारके कारिकामें 'परमार्थ' विशेषण भी लगाया गया है । अतः साथ पूजा-परिचर्याको वृद्धिंगत करना चाहिये, जो कि इस कारिकामें वर्णित फल उन्हींके प्रणामादिकसे सम्बन्ध सब दुखोंको हरने वाली है। रखता है-दूसरे तपस्वियोंके नहीं। व्याख्या-यहां वैयावृत्त्य नामके शिक्षाप्रतमें देवाधिक्षितिगतमिव वटबीजं पात्रगत दानमल्पमपिकाले। देव श्री महन्तदेवकी नित्य पूजा-सेवाका भी समावेश किया फलतिच्छायाविभवं बहुफलमिष्टं शरीरभृताम्११६ गया है । और उसे सब दुःखोंकी हरनेवाली बतलाया गया है। उसके लिए शर्त यह है कि वह श्रादरके साथ ___ 'सत्पात्रको दिया हुआ देहधारियोंका थोड़ा भी (पूर्णतः भक्तिभाव पूर्वक)चरणोंमें अर्पितचित्त हो कर दान, सुक्षेत्र में बोए हुए वटबीजके समान, उन्हें की जानी चाहिए ऐसा नहीं कि बिना श्रादर-उत्साहके समय पर (भोगोपभोगादिको प्रचुर सामग्रीरूप) छाया. मात्र नियमपूर्तिके रूप में, लोकाचारकी दृष्टिसे, मजबूरी विभवको लिये हुए बहुत इष्ट फलको फलता है।' से अथवा आजीविकाके साधनरूपमें उसे किया जाय । व्याख्या-यहां प्रणामादि जैसे छोटेसे भो कार्यका तभी वह उक्त फलको फलती है। बहुत बड़ा फल कैसे होता है उसे बड़के बीजके उदाहरण वैय्यावृत्त्यके, दानकी दृष्टिसे, जो चार भेद किये गये द्वारा स्पष्ट करके बतलाया गया है। और इसलिए हैं उनमें इस पूजा-परिचर्याका समावेश नहीं होता। दान पिछली कारिकामें जिसकार्यका जो फल निर्दिष्ट हुआ है और पूजन दो विषय ही अलग-अलग हैं-गृहस्थों की उसमें सन्देहके लिए अवक.श नहीं। सत्पात्र-गत होने पर पडावश्यक क्रियाओं में भी वे अलग-अलग रूपसे वर्णित उन कार्यों में वैसे ही फलकी शक्ति है। हैं। इसीसे प्राचार्य प्रभाचन्द्रने टीकामें दानके प्रकरणआहारोषधयोरप्युपकरणावासयोश्च दानन। को समाप्त करते हुए प्रस्तुत कारिकाके पूर्वमें जो निम्न वैयावृत्य प्रवते चतुरात्मत्वेन चतुरस्राः॥११७॥ प्रस्तावना-वाक्य दिया है उसमें यह स्पष्ट बतलाया है कि __ 'आहार, औषध, उपकरण (पीली, कमंडलु, शा- 'वैश्यावृत्त्यका अनुष्ठान करते हुए जैसे चार प्रकारका स्त्रादि) और आवास (वस्तिकादि) इन चार प्रकारके दान देना चाहिए वैसे पूजाविधान भी करना चाहिए'--
SR No.538011
Book TitleAnekant 1952 Book 11 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1952
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy