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अनेकान्त
[किरण
शोचनीय दशा
संस्कृतके आचार्य नौकरी करनेका तैयार मिलते हैं
और फिरभी नौकरी नहीं मिलती। सहायताकी पुरानी मुझे इस बातका खेद है कि इस दिशामें जैसी व्यवस्था होनी चाहिये, जितना धन, समय और शक्ति
परम्पराओंके लुप्त होनेका फल यह हो रहा है कि लगनी चाहिये बैसी न तो व्यवस्था है और न उनना
संस्कृतके शिक्षकों और विद्याथियों दोनों की ही
दुर्दशा हो रही है। दूसरे शब्दों में आज समाजसे धन समय और शक्ति हम लगा रहे हैं। एक समय
आने वाली दान-सरिता लगभग सूख गई है। अतः था जब राज्य और समाज दोनोंही संस्कृतके अध्ययन
इन परिस्थितियों में यदि संस्कृत अध्ययनकी परम्परा का पोषण करते थे। अंग्रेजी राज्यकालमें शिक्षाकी कुछ ऐसी व्यवस्था हुई कि हमारे देशमें यह भावना
खत्म हो गई तो चाहे वह आश्चर्यकी बात न हो किंतु घर करने लगी कि हमारी अपनी ऐतिहासिक परम्परामें,
वह स्वतन्त्र भारतके लिये लज्जाकी बात तो अवश्य संस्कार, रीति रिवाज सब व्यर्थ और हानिकर हैं और
होगी। विदेशाम सस्कृत अध्ययनका विकास हो और इसलिए उनको छोड़कर विदेशी सभ्यताको अपनाने में
स्वयं भारतमें वह खत्म हो जाय यह घटना यद्यपि
अकल्पनीय अवश्य है किन्तु मुझे ऐसा लगता है कि ही हमारा कल्याण है । इस परिवर्तनका ज्वलन्त उदाहरण यही है कि इस युगमें देशकी आंखें काशीकी
हम उसके निकट पहुँचते जा रहे है। इसलिये हमें ओर न रहकर कलकत्तेकी और लग गई। किन्तु इम
जहां एक ओर संस्कृतको जीवकोपयोगी विद्या बनाना उपेक्षा और लपहासके युगमें भी संस्कृत बनी रही
है वहां इसे भी भूलना नहीं चाहिये कि उसको आज और संस्कृतके विद्वान बने रहे। वह इसीलिये सम्भव
तक जीवित रखने वाले वही धन्य पुरुष हुए है जो इसे हुआ; क्योंकि संस्कृत और संस्कृतके विद्वान्ने कभी
केवल अर्थोपार्जनका सावन नहीं मानते थे। समाजलक्ष्मीकी दासता स्वीकार न की थी। किन्तु अपने
को भी अपनी एसी भूमिका बनानी है जिसमें मान धर्म निवाहनेके साथ-साथ उनके मनमें यह विश्वास
मर्यादा प्रतिष्ठा सरकार सभी लक्ष्मोके अनुगामी न भी था कि उनके कभी न कभी जमाना करवट बद
बनकर सरस्वतीके लिये सुरक्षित रहें और लक्ष्मीके लेगा और इस देशके इसकी जनता के, इसके पण्डिता
लिए धन जनित शान शौकत और लाभ कार्य छोड़ और प्राचार्योंके भाग्य फिर जगेंगे मैं नहीं कह
रखा जाय। सकता कि स्वतन्त्र भारतमें उन्होंने अपने इस विश्वाम,
सरकारी सहायता इस स्वप्न, इन आशाओंकी पूर्तिकी झलक देखी है या डा. राजेन्द्रप्रसादने आगे कहा कि अतः हम सबनहीं। किन्तु मुझे कभी-कभी यह भय होने लगता है को इस बात पर बड़े धैर्यसे विचार करना है कि हम कि सम्भवतः स्वतन्त्र भारतमें संस्कृत अध्ययनकी यह क्या उपाय करे, जिनसे संस्कृतका अध्ययन घटनेके परम्परा कही समाप्त न हो जाये। आज संस्कृत बजाय देशमें और अधिक प्रसार हो। सर्वप्रथम तो विद्वानोंकी जो अवस्था है वह वास्तवमें शोचनीय है। हमारे सामने यह प्रश्न है कि भविष्यमे संस्कृत पाठअभी राज्यने संग्कृत अध्ययनको प्रश्रय देनेका भार शालाओं और विद्यालयोंके लिये वित्तका कैसे प्रबन्ध अपने सर पर नहीं लिया है । यह ठीक है कि विद्या- हो। यह प्रत्यक्ष है कि आजके समाजसे अधिक लयोंमें संस्कृतके अध्यबनके लिए कुछ प्रबन्ध है किन्तु अपेक्षा नहीं की जा सकती कि वह उन पाठशालाश्र.का वह ऐसा नहीं है। जिसे गिनतीमें सम्मिलित किया भी भार संभाले जोपाज वर्तमान है, नई पाठशालाओंजा सके । संस्कृतको जो पाठशालाएँ और विद्यालय का भी भार संभाले जो आज वर्तमान है, नई पाठआजतक चल रहे हैं और जिनके द्वाराही संस्कृत शालाओंके खोलने और चलानेका तो प्रश्न पैदा होता अध्ययनकी परम्परा अब तक बनी रही है उनकी ही नहीं। सच तो यह है कि आज राज्यने इतने अधिक अवस्था आजकल शोचनीय होती जा रही है। वहांसे मात्रामें सामाजिक सूत्र अपने हाथमें ले लिये हैं कि निकले विद्यार्थियोंका हमारे भाधुनिक जीवनमें लगभग यदि राज्यने संस्कृत अध्ययनके वित्तभारको अपने कंधे न कुछके बराबर स्थान है और फल यह है कि आज पर न लिया तो यह संभवतः आगे न चल सकंगा। मैं